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________________ १७२ उपसंहार धम्मरयणत्थियाणं देसचरित्तीण तह चरित्तीण । लिंगाई जाई समए भणियाई मुखियतत्त े हि । १४२ ।। सि इमो भावत्थो नियमइविहवाणुसार ओ भणिश्रो । सपरागुग्गहहेउं समास संतिपुरीहिं ॥ १४३॥ मूल का अर्थ - धर्मरत्न के अर्थी, देशचारित्री तथा (सर्व) चारित्री के जो चिह्न तत्वज्ञानी पुरुषों ने सिद्धान्त में कहे हैं, उनका यह भावार्थ अपनी मति के अनुसार स्वपर के अनुग्रह के हेतु शांतिसूरि ने संक्षेप से कहा है । टीका का अर्थ - धर्मरत्न को उचित देशचारित्री अर्थात् श्रमणोपासक और चारित्री अर्थात् साधु, उनके लिंग अर्थात् चिह्न जो समय में अर्थात् सिद्धान्त में भणित हैं अर्थात् कहे हैं । मूर्णिततत्त्वपुरुषों ने अर्थात् सिद्धान्त के तत्त्व को समझने वाले पुरुषों ने, यह पहिली गाथा का अर्थ है । उनका यह पूर्वोक्त स्वरूपवाला भावार्थ अर्थात् तात्पर्य, निजमति - विभव के अनुसार अर्थात् अपनी बुद्धिसंपत् के अनुसार कहा है । सारांश यह है कि- सिद्धान्त रूप महासमुद्र का पार पाना अशक्य होने से जितना जाना उतना कहा है। इतना प्रयास क्यों किया है ? इसके लिये कहते हैं कि - स्वपर का अनुग्रह अर्थात् उपकार वही हेतु अर्थात् कारण है । जो कहना सो स्वपरानुग्रह हेतु यह क्रियाविशेषण है । स्वपरानुग्रह तो आगम ही से होगा, ऐसा कोई कहे, तो ऐसा नहीं । क्योंकिआगम में तो कोई अर्थ कहीं ओर कहा, उसे वर्तमान में अल्पायु और अल्पबुद्धि जीव नहीं समझ सकते । इसी हेतु समास से अर्थात् स्वल्प ग्रंथ से यह कहा है ।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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