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________________ १७० श्रीप्रभ महाराजा की कथा इसी समय चर के मुख से यह वृत्तान्त सुनकर अरिदमन राजा वहां आ हर्षित हो, उक्त मुनि की इस प्रकार स्तुति करने लगा हे मुनीश्वर ! आप विकसित शतपत्र के दलपटल के समान विमल कीर्तिवान् हो, सकल जीवों की रक्षा में दक्ष आशयवान हो सुधीर हो | पवित्र सत्य वचन की रचना के विस्तार रूप अमृत से संसार के दाह का शमन करने वाले हो| दत शोधन के योग्य पराई वस्तु में भी निःस्पृह मनवाले हो, जगत् को जीतने वाले कामरूप हाथी का कुभस्थल विदीर्ण करने को बलिष्ट केसरी सिंह के समान हो और पग में लगी हुई रज के समान क्रीड़ावत् महान् राज्य का त्याग करने वाले हो । (अतः आप जयवान रहो, जयवान रहो।) ___ मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्यरूप महासागर में अवगाही और अति दुष्कर तप करने वाले हे महाभाग ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। इस प्रकार उसके स्तुति करने पर भी सर्वथा उत्कषे रहित रहकर वे मुनि उस समय आयु टूटते परम ध्यान पर चढ़े। वे इस शरीर को भाड़े के मकान के समान तुरन्त त्याग कर सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्तम देवता हुए। अब वहां समीपस्थ देवताओं ने हर्षित होकर गंधोदक तथा कुसुम की वृष्टि से मुनि के शव को महिमा करी। वह देव सर्वार्थसिद्धि विमान में एक हाथ ऊंचा तथा चन्द्रकिरण के समान कान्तिवान्, तैतीस सागरोपम की आयुष्यवाला अहमिन्द्र, अहंकार रहित, सुखशय्या में सोनेवाला, निःप्रतिकर्म (शृगार उतारने पहिनने की खटपट रहित), सदैव विमल लेश्या से युक्त, स्थानांतर में जाने आने के झंझट से मुक्त, उत्तर वैक्रिय विकार को न करने वाला, तैंतीस पक्ष से सुगंधि निःश्वास लेने
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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