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माता-पिता और बच्चों का व्यवहार
प्रश्नकर्ता : गुस्सा हो जाने का कारण क्या?
दादाश्री : 'वीकनेस'। यह 'वीकनेस' (कमजोरी) है! अर्थात् वह खुद गुस्सा नहीं करता, वह तो गुस्सा होने के बाद खुद को मालूम पड़ता है, कि यह गलत हो गया, ऐसा नहीं होना चाहिए। इसलिए अंकुश उसके हाथ में नहीं हैं। यह मशीन गरम हो गया है, इसलिए उस समय हमें जरा ठंडा रहना चाहिए। अपने आप ठंडा हो, तब हाथ डालना।
बच्चे पर तुम चिढ़ते हो तब वह नया कर्ज लेने जैसा है, क्योंकि चिढ़ने में हर्ज नहीं, पर तुम जो 'खुद' चिढ़ते हो वह नुकसान करता है।
प्रश्नकर्ता : बच्चों को जब तक डाँटे नहीं तब तक शांत ही नहीं होते, डाँटना तो पड़ता है न!
दादाश्री : नहीं, डाँटने में हर्ज नहीं। मगर 'खुद' डाँटते हो इसलिए तुम्हारा मुँह बिगड़ जाता है, इसलिए जिम्मेदारी है। तुम्हारा मुँह बिगड़े नहीं ऐसे डाँटो, मुँह अच्छा रखकर डाँटो, खूब डाँटो। तुम्हारा मुँह बिगड़ता है अर्थात् तुम्हें जो डॉटना है वह तुम अहंकार कर के डाँटते हो।
प्रश्नकर्ता : तब तो लड़कों को ऐसा लगेगा कि ये झूठ-मूठ का डाँट रहे हैं।
दादाश्री : वे इतना जाने तो बहुत हो गया। तो उनको असर होगा, नहीं तो असर ही नहीं होगा। तुम बहुत डाँटो तो वे समझते हैं कि ये कमजोर आदमी हैं। वे लोग मुझे कहते हैं, हमारे पिताजी बहुत कमजोर आदमी हैं, बहुत चिढ़ते रहते हैं।
प्रश्नकर्ता : हमारा डाँटना ऐसा नहीं होना चाहिए कि हमें ही मन में विचार आते रहें और खुद को असर होता रहे?
दादाश्री : वह तो गलत है। डाँटना ऐसा नहीं होना चाहिए। डाँटना ऊपरी तौर पर जैसे कि नाटक में लड़ते हैं, उस प्रकार का होना चाहिए। नाटक में लड़ते हैं, 'क्यों तू ऐसा करता है और ऐसा वैसा' सब बोलते हैं पर अन्दर कुछ भी नहीं होता, ऐसे डाँटने का है।
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माता-पिता और बच्चों का व्यवहार प्रश्नकर्ता : बच्चों को कहने जैसा लगता है तब डाँटते हैं, तब उन्हें दुःख भी होता हो तब क्या करें?
दादाश्री : फिर हम भीतर माफी माँग लें। इस बहन को बहुत ज्यादा बोल गए हों और उसे दु:ख हआ हो तो तुम इस बहन से कहो कि क्षमा चाहता हूँ। अगर ऐसा बोल नहीं सकते तो अतिक्रमण हुआ इसलिए भीतर प्रतिक्रमण करो। तुम तो 'शुद्धात्मा हो' इसलिए तुम चन्दुभाई से कहना कि 'प्रतिक्रमण करो।' तम्हें दोनों विभाग अलग रखने हैं। अकेले में भीतर अपने आपसे कहो कि 'सामनेवाले को दुःख न हो' ऐसा बोलना। फिर भी लड़के को दु:ख हो तो चन्दुभाई से कहना, 'प्रतिक्रमण करो।'
प्रश्नकर्ता : लेकिन अपने से छोटा हो, अपना बेटा, हो तब क्षमा कैसे माँगे?
दादाश्री : भीतर से क्षमा माँगना, हृदय से क्षमा माँगना। भीतर दादा दिखाई दें और उनकी साक्षी में आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान उस लड़के के करें तो तुरन्त उसे पहुँच जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : हम किसी को डाँटे, मगर उसकी भलाई के लिए डाँटते हों, जैसे बच्चों को ही डाँटे तो क्या वह पाप कहलाएगा?
दादाश्री : नहीं, उससे पुण्य बँधेगा। लड़के की भलाई के लिए डाँटें मारें तब भी पुण्य बँधता है। भगवान के घर अन्याय होता ही नहीं! लड़का उल्टा कर रहा है इसलिए लड़के की भलाई के लिए खुद को आकूलता हुई और उसे दो चपत लगा दी, तो भी उसका पुण्य बँधता है। उसे अगर पाप गिना जाता हो तो ये क्रमिक मार्ग के सभी साधुआचार्यों में से किसी का मोक्ष नहीं हो सकता। सारा दिन शिष्य के प्रति अकुलाते रहते हैं, पर उससे पुण्य बँधता है। क्योंकि दूसरों की भलाई के लिए वह क्रोध करता है। अपनी भलाई के लिए क्रोध करना पाप है। कितना सुन्दर न्याय है! कितना न्याय पूर्ण है! भगवान महावीर का न्याय कितना सुन्दर है! यह न्याय तो धर्म-कांटा ही है न!!