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माता-पिता और बच्चों का व्यवहार
घर में चार संतानें हों, उनमें दो बच्चों की कुछ भूल ना हो तो भी बाप उन्हें डाँटता रहता है और दूसरे दो भूल करते रहें तो भी कोई उन्हें कुछ नहीं कहता। उसके पीछे जो रूट कोज़ (मूल कारण) है, उसीके कारण है। अपने घर में दो संतानें हों, तो दोनों समान लगनी चाहिए। यदि हम किसी के पक्ष में हों कि 'यह बड़ा दयालु है और नन्हा कच्चा पड़ जाता है।' तो सब बिगड़ जाता है। दोनों समान लगने चाहिए।
प्रश्नकर्ता : बेटा बात बात में जल्दी रूठ जाता है।
दादाश्री : महँगा बहुत है न! बहुत महँगा, फिर क्या हो? बेटी सस्ती है, इसलिए बेचारी रूठती नहीं।
प्रश्नकर्ता : ये रूठना क्यों होता होगा, दादाजी?
दादाश्री : यह तो मनाने जाते हैं न, इसलिए रूठते हैं। मेरे पास रूठे तो जानूँ! मेरे साथ कोई नहीं रूठता। फिर से बुलाऊँ ही नहीं न! खाये या न खाये, फिर से नहीं बुलाऊँ। मैं जानता हूँ, इससे बुरी आदत हो जाती है, ज्यादा बुरी आदत पड़ती है। नहीं, नहीं, बेटा खाना खा ले, बेटा खाना खा ले, अरे, भूख लगेगी तो बेटा अपने आप खा लेगा, कहाँ जानेवाला है? वैसे तो मुझे दूसरी कलाएँ भी आती हैं। बहुत टेढ़ा हुआ हो तो, भूखा हो तो भी नहीं खायेगा। ऐसा हो तब हम उसकी आत्मा के साथ अन्दर विधि करते हैं, तुम्हें ऐसा नहीं करना है। तुम जो करते हो, वही करो। बाकी मेरे साथ नहीं रूठते और यहाँ मेरे पास रूठकर भी क्या फायदा निकालेंगे?
प्रश्नकर्ता : दादाजी, वह कला सिखा दो न। क्योंकि यह रूठनामनाना तो सबको रोज़ाना हो गया है। अगर ऐसी एकाध चाबी दे दो तो सब का निराकरण हो जाए।
दादाश्री : यह तो हमें बहुत गरज़ हो तो वह ऐसे रुठता है। इतनी सारी गरज़ क्यों फिर?
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माता-पिता और बच्चों का व्यवहार प्रश्नकर्ता : इसका मतलब क्या, मैं समझा नहीं, बहुत गरज हो तो रूठते है? किसे गरज़ होती है?
दादाश्री : सामनेवाले को गरज़ हो। तब रूठनेवाला सामनेवाले को उसकी गरज़ हो, तो रूठता है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् हमें गरज़ ही नहीं दिखानी?
दादाश्री : गरज होनी ही नहीं चाहिए। किस लिए गरज? कर्म के उदयानुसार जो होनेवाला हो वह होगा, फिर उसकी गरज क्यों रखनी? और फिर कर्म का उदय ही है। ग़रज़ दिखाने पर जिद पर चढ़ते हैं उल्टे।
प्रश्नकर्ता : छोटे बच्चों का गुस्सा दर करने के लिए उन्हें कैसे समझाएँ?
दादाश्री : उनका गुस्सा दूर कर के क्या फायदा? प्रश्नकर्ता : हमारे साथ झगड़ा न करें।
दादाश्री : उसके लिए कोई दूसरा उपाय करने के बजाय उनके माता-पिता तो इस प्रकार रहना चाहिए कि उनका गुस्सा बच्चे न देखें। उन्हें गुस्सा करते देखकर बच्चों को लगता है कि मेरे पिताजी करते हैं, तो मैं उनसे सवा गुना गुस्सा करूँ। अगर तुम बंद कर दोगे, तो (उनका) अपने आप ही बंद हो जाएगा। मैंने बंद किया है, मेरा गुस्सा बंद हो गया है तो मेरे साथ कोई गुस्सा करता ही नहीं। मैं कहँ, गस्सा करो तो भी नहीं करते। बच्चे भी नहीं करते, मैं मारूँ तब भी गुस्सा नहीं करते।
___ प्रश्नकर्ता : बच्चों को सही मार्ग पर लाने के लिए माता-पिता के फर्ज तो अदा करना चाहिए न, इस लिए गुस्सा तो करना पड़ता है न?
दादाश्री : गुस्सा क्यों करना पड़े? वैसे ही समझाकर कहने में क्या हर्ज है? गुस्सा तुम करते नही हों, तुम से हो जाता है। किया हआ गुस्सा, गुस्सा नहीं कहलाता। आप खुद गुस्सा करते हैं, आप उसे धमकायें उसे गुस्सा नहीं कहते। लेकिन तुम तो गुस्सा हो जाते हो।