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माता-पिता और बच्चों का व्यवहार
३३ तो लड़के सब कुछ मानते हैं। मेरा कहा सब लडके मानते हैं। मैं जो कहूँ वह करने के लिए तैयार हैं, यानी हमें उन्हें समझाते रहना चाहिए। फिर जो करे वह सही।
प्रश्नकर्ता : मूल समस्या यह है कि पढ़ने के लिए लडकों को हम कई तरह से समझाते हैं लेकिन हमारे कहने पर भी वे लोग समझते नहीं, हमारी सुनते नहीं।
दादाश्री : ऐसा नहीं कि वे नहीं सुनते, पर तुम्हें माँ होना नहीं आया इसलिए। अगर माँ होना आता तो क्यों नहीं सुनते? क्यों बेटा नहीं मानता? क्योंकि 'अपने माता-पिता का कहा खुद उसने कभी माना ही नहीं था न!'
प्रश्नकर्ता : दादा, उसमें वातावरण का दोष है कि नहीं?
दादाश्री : नहीं, वातावरण का दोष नहीं है। माता-पिता को सही मानो में माता-पिता होना आया ही नहीं। माता-पिता की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। प्रधानमंत्री होना भी उससे कम जिम्मेदारी है।
प्रश्नकर्ता : वह कैसे?
दादाश्री : प्रधानमंत्री होने में तो लोगों का ऑपरेशन है। यहाँ तो अपने लडके का ही ऑपरेशन होना है। घर में दाखिल हों तो बच्चे खुश हो जाएँ ऐसा होना चाहिए और आजकल तो बच्चे क्या कहते हैं? 'हमारे पिताजी घर में न आयें तो अच्छा।' अरे, ऐसा हो तब फिर क्या हो?
इसलिए हम लोगों से कहते हैं, 'भैया, बच्चों को सोलह साल के होने बाद 'फ्रेन्ड' (मित्र) के रूप में स्वीकार लेना'. ऐसा नहीं कहा? 'फ्रेन्डली टोन' (मैत्रीपूर्ण व्यवहार) में हो न, तो अपनी वाणी अच्छी निकले, वर्ना हर रोज़ बाप बनने जाएँ तो कोई सार नहीं निकलता। लड़का चालीस साल का हुआ हो और हम बापपना दिखाएँ तो क्या हो?
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, बुड्ढे लोग भी हमारे साथ ऐसा व्यवहार करें, उनके विचार पुराने हो गए हों, तो हमें उन्हें कैसे हैन्डल करना चाहिए?
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माता-पिता और बच्चों का व्यवहार दादाश्री : यह गाड़ी ऐन वक्त पर, जब जल्दी में हो तब. पंक्चर हो जाए, तो क्या हम उसके 'व्हील' (पहिया) को मारते हैं?
प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : ऐन वक्त पर, जल्दी हो और टायर पंक्चर हो गया तो व्हील को मारना चाहिए? तब तो फटाफट सम्भालकर अपना काम कर लेना चाहिए। गाड़ी में पंक्चर तो होता ही रहता है। वैसे बुड्ढे लोगों को पंक्चर होता ही है। हमें सम्भाल लेना चाहिए। पंक्चर हो तो गाड़ी को मारपीट कर सकते हैं?
प्रश्नकर्ता : दो बेटे आपस में लड़ रहे हों, हम जानते हैं कि दोनों में से कोई समझनेवाला नहीं, तो तब हमें क्या करना चाहिए?
दादाश्री : एक बार दोनों को बिठाकर बोल देना कि आपस में झगड़ने में फायदा नहीं, उससे लक्ष्मी चली जाती है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन वे मानने को तैयार न हों तो क्या करें, दादाजी? दादाश्री : जैसा है वैसा रहने दो।
प्रश्नकर्ता : लड़के आपस में लड़ें और वह मामला बड़ा स्वरूप ले ले, तो हम कहते हैं कि यह ऐसा कैसे हो गया?
दादाश्री : उन्हें बोध होने दो न, आपस में लड़ने पर उन्हें खुद मालूम होगा, समझ आयेगी न? ऐसे बार-बार रोकते रहने पर बोध नहीं होगा। जगत् तो केवल निरीक्षण करने योग्य है!
ये संताने किसी की होती ही नहीं, यह तो सिर पर आ पड़ी जंजाल है! इसलिए इनकी मदद ज़रूर करना पर अन्दर से ड्रामेटिक रहना।
पहले शिकायत करने कौन आता है? कलियुग में तो जो गुनहगार हो, वही पहले शिकायत लेकर आता है और सत्युग में जो निर्दोष हो वह पहले शिकायत लेकर आता है। इस कलियुग में न्याय करनेवाले भी ऐसे कि जिसका पहले सुने उसके पक्ष में बैठ जाते हैं।