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वीर संवत २४९२, आषाढ़ कृष्ण ४,
गाथा ७४ से ७५
मंगलवार, दिनाङ्क ०६-०७-१९६६ प्रवचन नं. २७
___ योगसार अर्थात् क्या? योग अर्थात् जुड़ान ऐसा (अर्थ) होता है। किसमें? यह आत्मा अन्दर सच्चिदानन्द शुद्धस्वरूप ध्रुवस्वरूप है। यह देह वाणी वह तो मिट्टी जड़ है, उससे पृथक् भी अन्दर पुण्य-पाप के जो शुभ-अशुभभाव होते हैं, विकल्प (होते हैं) वह विकार है, उससे वह पृथक् तत्त्व है, उस आत्मा में... ।
यहाँ पर बड़ का दृष्टान्त दिया है। जैसे, बीज में बड़ है ऐसे इस आत्मस्वभाव में परमात्मस्वरूप पूर्ण पड़ा है। समझ में आया? जैसे, पीपल के दाने में... पीपल-पीपल होती है न? वह पीपल, छोटी पीपल; उस एक पीपल में चौसठ पहरी चरपराहट अन्दर भरी है। आकार में छोटी, रंग में काली, तथापि उसके अन्दर स्वभाव में चौसठ पहरी चरपराहट भरी है।
मुमुक्षु : दस्ता से आती है?
उत्तर : दस्ता से आवे तो पत्थर नहीं घिस डाले वह घिसे तब चौंसठ पहरी प्रगट होती है या नहीं? कहाँ से आयी? पत्थर घिसने से आवे तो कोयले और कंकड़ घिसना चाहिए। ठीक है या नहीं इसमें न्याय, लॉजिक से? उस पीपल में चौसठ पहरी चरपराहट भरी है। चौसठ पहरी, वह तो अब सोलह पैसे का रुपया हुआ न? अभी तक तो चौसठ पैसे का रुपया था न? चौसठ पैसा अर्थात् पूर्ण रुपया, सम्पूर्ण अखण्ड। ऐसे पीपल में एक-एक दाने में चौसठ पहरी अर्थात् सोलह आने अर्थात् पूर्ण चरपराहट भरी है। जो पड़ी है, उसकी - प्राप्त की प्राप्ति है; है उसमें से आती है। न हो उसमें से नहीं आ सकती। इसी प्रकार इस देह के रजकणों से भिन्न भगवान आत्मा उसमें चौसठ पहरी अर्थात् पूर्ण ज्ञान और आनन्द उसमें पड़ा है। पीपल का भरोसा किसे आता है क्योंकि वैद्य आदि ने