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योगसार प्रवचन (भाग-२)
में प्रधान मेरे लिये मैं ही हूँ, मेरे लिये कोई दूसरा तीन लोक में प्रधान नहीं है। ओ... हो... ! देखो कितना रखा है ! समझ में आया ? जो तीन लोक में प्रधान है।
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अपना आत्मा अपने शरीर में व्यापक है । यहाँ पर व्यापक है न ? बीज में जैसे बड़ व्यापक है न? बीज में बड़ है ऐसा पसर कर रहता है, ऐसे भगवान आत्मा अनन्त ज्ञानदर्शनादि से व्यापक है। पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन, पूर्ण आनन्द, पूर्ण स्वच्छता, पूर्ण प्रभुता आदि अनेक शक्तियों का पिण्ड भगवान एक समय में पूर्ण परमात्मा ही व्यापक है। समझ में आया? शरीर प्रमाण है । शरीर प्रमाण आकार में शरीर में है। शरीर प्रमाण के आकार भी, शरीर प्रमाण शरीर से भिन्न, अपने आकार से है । जैसे, बरगद में... बरगद में... ऐसी भाषा ली है, हाँ! बरगद, ऐसा कहते हैं न? बड़ को ऐसा कहते हैं न?
बड़ में बीज और बीज में बड़ व्यापक है। बीज में बड़ व्यापक है और बड़ में बीज व्यापक है। ऐसे पूरे बड़ में ही एक ही बीज व्यापक है क्योंकि मूल बीज जो है, वह सर्वत्र व्याप्त है न ? बड़ का वृक्ष है न ? मूल बीज है न ? एक मूल बीज व्यापक है, सम्पूर्ण ठेठ पत्तों में, ठेठ उसके फल में वह सर्वत्र व्याप गया है। भगवान आत्मा अपने आत्मा में देव-भगवान विराजता है और भगवान में स्वयं आत्मा विराजता है, स्वयं का स्वयं भगवान, स्वयं का स्वयं बीज, और स्वयं का स्वयं भगवान । आहा... हा...! अनन्त मोक्ष केवलज्ञान आदि का बीज तो आत्म द्रव्य है। समझ में आया ? उसमें वह मोक्ष और अनन्त केवलज्ञान की पर्याय सर्वत्र व्यापक उसमें पड़ी है । आहा... हा...! समझ आया ? जो मोक्षदशा की अनन्त दशायें (प्रगट होती हैं) । वे सभी आत्मा में व्यापकरूप से पड़ी हैं। इसलिए तू तेरा देव है। आत्मा स्वयं तीन लोक में मुख्य पदार्थ परमात्मादेव है, ज्ञानी को ऐसा विचारना चाहिए कि मुझे आराधना करने योग्य मेरा आत्मा ही है । लो, मुझे आराधना करने योग्य, सेवा करने योग्य, ध्यान करने योग्य, मेरा आत्मा है। समझे ? यही विचार करो कि जैसा आकार मेरे इस शरीर का है, वैसा ही आकार मेरे आत्म भगवान का है। आकार आत्मा का है। मैं तो शरीर से भिन्न आकार से हूँ मेरे आकार अनन्त आनन्दादि पड़ा है । परमात्मस्वरूपी मैं निर्विकल्प आनन्द हूँ इस प्रकार धर्मी को अपने स्वरूप का आराधन करने योग्य है और अपने को प्रभु मानना, वही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। ( श्रोता: प्रमाण वचन गुरुदेव)