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गाथा-७४
स्वयं परमात्मस्वरूप है। कैसे बैठे? मैं परमात्मा? मैं भगवान? भाई! तू भी भगवान, वस्तु से भगवान नहीं हो तो पर्याय में भगवान कहाँ से होगा? वस्तुपने भगवान न हो तो अवस्था में भगवानपना कहाँ से आयेगा? बाहर से आता है ? आहा...हा...! क्या है श्लोक?
ज्यों बीज में है बड़ प्रगट, बड़ में बीज लखात।
त्यों ही देह में देव वह, जो त्रिलोक का नाथ॥ तीन लोक में भी यह आत्मा देव जैसा प्रधान कोई आत्मा दूसरा नहीं है, ऐसा कहते हैं, दूसरे परमेश्वर भी इस देव के परमात्मा नहीं हैं । आहा...हा...! समझ में आया? तीन लोक में तेरा आत्मादेव वह प्रधान है, ऐसा कहते हैं। भगवान अरहन्त और भगवानदेव तेरे लिए नहीं हैं । आहा...हा...!
ज्यों बीज में है बड़ प्रगट, बड़ में बीज लखात।
त्यों ही देह में देव वह, जो त्रिलोक का नाथ ॥ शरीर में देव का अनुभव करो। शरीर में देव का अनुभव करो, भगवान आत्मादेव तू ही। ओ...हो...! समझ में आया? वस्तु है न? आत्मा पदार्थ है न? पदार्थ है न आत्मा? पदार्थ है तो पूर्ण ज्ञानदर्शन आनन्द से पूर्ण भरा है। जैसे परमात्मा पर्याय में पूर्ण है, यह वस्तु से पूर्ण है। पूर्ण परमात्मा स्वयं अपने को जब तक नहीं मानता तब तक उसकी दृष्टि सम्यक् नहीं होती। समझ में आया? शरीरवाला तो नहीं मानना, कर्मवाला नहीं मानना, रागवाला नहीं मानना, अल्प अवस्थावाला नहीं मानना। आहा...हा...! अल्प अवस्था समझते हो? प्रगट पर्याय जितनी अल्प है, वह कहीं वस्तु नहीं, वस्तु नहीं, वस्तु एक समय में वस्तु बहोरजो रे, दोशिणा ने हाटे' ऐसा आता है न? वह विवाह में आता है, वह वस्तु अन्दर पड़ी है। ए... फूलचन्दजी! आता है या नहीं? समझ में आया? विवाह में गाते हैं। यह विवाह सजाया है, कहते हैं।
भाई! तू बड़ा वर है, हाँ! सब समय में उसे वर बनाते हैं या नहीं? परन्तु वह थोड़ी देर । यहाँ तो त्रिकाल त्रिलोक प्रधान तीन लोक में तेरा आत्मादेव, उसके सिवाय तेरे लिये कोई देव नहीं है। आहा...हा...! यह उस दृष्टि में स्वीकार... समझ में आया? भरोसे भगवान चढ़ गया, ऐसा भगवान पूर्णानन्द प्रभु वह मैं स्वयं ही देव, मेरा देव, मैं तीन लोक