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योगसार प्रवचन (भाग-२)
बहुत बार घिसकर देखा होता है। ऐसे उस पीपल का उतना दाना, कद में छोटा, रंग में काला, अल्प चरपराहट बाह्य व्यक्तरूप से अल्प दिखाई देती है, परन्तु अन्तर के स्वभाव में उसका सत्व जो शक्तिरूप है, वह तो पूरी चौसठ पहरी चरपराहट से भरपूर और जिसमें हरा रंग पूर्ण भरा है। बाहर में भले ही काली ( दिखाई दे ) परन्तु अन्दर उसका स्वभाव काला नहीं है, उसमें हरा रंग भरा है।
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ऐसे भगवान आत्मा इस देह में रहनेवाला तत्त्व भले ही शरीर प्रमाण हो, वही यहाँ कहते हैं, तथापि उसके अन्तर सत्व में, अन्तरशक्ति में जैसे - बीज में पूरा बड़ है, पीपल के दाने में जैसे चौसठ पहरी चरपराहट और हरा रंग पूरा है, उसी प्रकार यह भगवान आत्मा इसके अन्तरशक्ति के सत्व में, ध्रुवपने में, सत्त्व में ध्रुवपने में पूर्ण आनन्द और पूर्ण ज्ञान, पूर्ण व्यापक पड़ा है। उसे कभी उसका भरोसा आया नहीं । जगत् की वस्तु की महत्ता और महिमा उसे दिखाई देती है। समझ में आया ? यह शक्कर होती है न ? क्या कहलाती है वह ? सेक्रिन । छह सौ गुनी ( मिठास ) कहते हैं न कोई ? छह सौ गुनी मिठास, उसे माने कि यह शक्कर के रजकणों में उसमें अमुक प्रकार के रस की उग्रता होती है, उग्रता होवे तो छह सौ गुनी उसमें होती है। उन रजकणों में रस की ऐसी जाति की ताकत पड़ी है तो छह सौ गुनी (मिठास) उसमें आती है। डली इतनी हो और थोड़ी मिठास हो वह थोड़ी हो और बहुत मिठास हो वह मिठास की दशा की - अवस्था की शक्ति तो उसके रजकण में थी उसमें से प्रगट हुई है ।
ऐसे ही यह भगवान आत्मा, मैं कौन हूँ और कैसा हूँ ? ऐसी उसे खबर नहीं है । उसे तो यह शरीर और वाणी और राग और पुण्य और पाप, शुभ -अशुभभाव होवे उतना । वह नहीं ऐसा जानने की जो कला अल्पज्ञ वर्तमान दशा दिखती है । अल्प वह पर को जानती है न ? उस अल्पज्ञान का विकास है, उतना वह नहीं। जैसे बीज में पूरा बड़ समाहित है, बीज में बड़ है, न होवे तो आया कहाँ से ? प्रगट कहाँ से हुआ ? कंकण में पानी डाले, कंकण बोये और पानी डाले, बड़ ऊगता होवे तो। उस चीज में बड़ होने की ताकत है, भाई ! ठीक है या नहीं इसमें? लॉजिक से तो बात है, इसमें न्याय से जरा इसे जानना पड़ेगा। कंकण बोये नहीं, पानी डाले नहीं, दूध डाले नहीं और उसमें निंबोली बोये, क्या बड़ होगा ? उस बड़ के बीज में ही बड़ के होने की ताकत है ।