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गाथा-१०४
है; इसलिए ध्यान में सफलपना आता है। प्यास लगी हो और पानी न हो और तृप्ति हो - ऐसा होता है? प्यास में सच्चा पानी हो तो प्यास टूटती है; झूठ-मूठ के पानी से प्यास मिटेगी? इसी प्रकार आत्मा अरहन्तपद में अन्दर सच्चीरूप से है। यदि झूठ-मूठी प्रकार से हो तो उसकी एकाग्रता के श्रद्धा, शान्ति, आनन्दादि की दशा जो प्रगट होती है, वह झूठ -मूठ अरहन्त यदि स्वभाव में हो तो वह प्रगटेगी नहीं। समझ में आया? बज्जूभाई!
मोक्षपाहुड में भी १०४ गाथा में यही कहा है, समझे न? मोक्षपाहुड़। (यहाँ) १०४ ऐसी है। वहाँ भी १०४ ऐसी है। देखो! आगे आचार्य कहते हैं कि जो अरहंतादिक पंच परमेष्ठी हैं, वे भी आत्मा में ही हैं; इसलिए आत्मा ही शरण है – मोक्षपाहुड़ १०४ ।
अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेट्ठी।
ते विहु चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं॥१०४॥ पण्डित जी ! इतनी स्पष्टता है, देखो न ! आहा...हा... ! सर्वथा मौजूद है। वस्तु में मौजूद ही न हो तो इनलार्ज कहाँ से होगा? इनलार्ज अर्थात् पर्याय में कार्यरूप कहाँ से आयेगा? समझ में आया? अरे... ! यह भरोसा भी कौन लावे?
जिसकी सत्ता में... भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं। अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पंच परमेष्ठी हैं, ये भी आत्मा में ही चेष्टारूप हैं, शक्तिरूप से आत्मा की अवस्था हैं.... प्रगट होने पर वह आत्मा की ही अवस्था है। इसलिए मेरे आत्मा ही का शरण है, इस प्रकार आचार्य ने अभेदनय प्रधान करके कहा है। समझ में आया? १०४, हाँ! यहाँ भी १०४ गाथा ऐसी है, लो ! कुदरत ही देखो न मेल! यहाँ १०४ है, वहाँ भी मोक्षपाहुड़ की १०४ गाथा है। समझ में आया? भगवान आत्मा... भाई ! तू बड़ा है, भाई ! तू छोटा नहीं। तेरी दशा में अल्पज्ञपना हो परन्तु स्वभाव सर्वज्ञ है। अल्पदर्शीपना दशा में हो परन्तु स्वभाव सर्वदर्शी है। अल्प वीर्य वर्तमान प्रगट में हो परन्तु आत्मा अनन्त वीर्य का धाम है। राग-द्वेष की विपरीतता हो परन्तु वीतराग आनन्द का यह आत्मा कन्द है।
मुमुक्षु – इसे पण्डिताई रुचती है? उत्तर – रुचती है, इसे अनादि से उस वस्तु की रुचि नहीं होती... भरोसा नहीं