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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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है।'ध्रुवपद रामि रे...' समझ में आया? आत्मा का ध्रुवस्वरूप है। एक समय की दशा है, वह अल्प है, विपरीत है रागादि । अल्प अर्थात् ज्ञान, दर्शन और वीर्य की अल्प अवस्था है और राग-द्वेष की, वह विपरीत अवस्था है। यह चार घाति; अघाति का कुछ नहीं।
आत्मा में वर्तमान अवस्था में – दशा में अल्प ज्ञान, अल्प दर्शन, अल्प वीर्य (और) राग-द्वेष के परिणाम हैं । वह तो एक क्षणिक दशा है। उसके स्थायी मूल स्वभाव में तो जो अरहन्त – अनन्त चतुष्टय प्रगट होनेवाले हैं, वे सब अनन्त चतुष्टय आत्मा में अन्दर पड़े हैं। समझ में आया? इसलिए कहते हैं कि आत्मा ही अरहन्त है – ऐसा जानो। भगवान मैं अरहन्त आत्मा ही हूँ।
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं कहा था न? (प्रवचनसार की) ८० गाथा। भगवान अरहन्त का द्रव्य अर्थात शक्तिवान: गण अर्थात शक्ति और पर्याय अर्थात् वर्तमान प्रगट हालत – दशा – ऐसे जो अरहन्त के द्रव्य-वस्तुस्वभाव और दशा को जो जानता है, वह आत्मा के अन्दर में (उसके साथ) मिलाता है। समझ में आया? मेरे आत्मा में भी यह अनन्त ज्ञान-दर्शन आदि वस्तु के स्वभाव में अरहन्त पद अन्दर पड़ा है। पड़ा है, वह प्रगट होता है। होवे वह आवे, न होवे वह नहीं आवे। ऐसा भगवान आत्मा को अरहन्त के स्वरूप से जानना चाहिए... ओ...हो...! यह प्रतीति, यह श्रद्धा, रागरहित निर्विकल्प श्रद्धा द्वारा यह भगवान आत्मा अरहन्त हूँ - ऐसी प्रतीति हो सकती है। समझ में आया?
कहते हैं कि अरहन्त का ध्यान करना। कल कहा था न? कल आया था न? वह नहीं था? – तत्त्वानुशासन में १९२ गाथा। यह ध्यान करना। अभी अरहन्त नहीं हैं न? (तो) उनका ध्यान करना, यह तो झूठ-मूठ ध्यान है। भाई ! यह झूठ नहीं है, भाई! तुझे पता नहीं है। अरहन्त जो प्रगटरूप अनन्त अवस्था – दशारूप, कार्यरूप जो प्रगट हुए, वे सब कारण अन्दर में तेरे स्वभाव में सब पड़े हैं, भाई! आहा...हा...! उस कारण का उसके बाद कार्य है। समझ में आया?
भगवान आत्मा कारणपरमात्मा अर्थात् कारणजीव ध्रुव वस्तु में अरहन्त पद अन्दर पड़ा है। वहाँ तो ऐसा जबाव दिया है कि यदि वह न हो तो उसकी एकाग्रता से शान्ति और आनन्द का अनुभव, सफलपना जो होता है, वह अरहन्त पद का अन्दर स्वरूप