________________
योगसार प्रवचन (भाग-२)
३६७
वास्तव परमात्मा का श्रद्धा - ज्ञान
साक्षात्कार हुआ है। समझ में आया ? लोग नहीं कहते ? कि ए... तुम्हें भगवान का साक्षात्कार हुआ ? भगवान मिले तुझे ? वे भगवान परमेश्वर स्वयं जिसकी श्रद्धा और ज्ञान में अन्तर्मुख होने से साक्षात्कार हुआ, उसका सम्यग्दर्शन और शान्ति का परिणमन ( हुआ), उसे यहाँ परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं। अध्यात्म की बात ली है न! वह क्रिया व्यवहार की है, उस बात को ज्ञान लिया। समझ में आया ?
यहाँ अध्यात्मदृष्टि से शब्दार्थ लेकर कहा है... इन्होंने खुलासा किया है शीतलप्रसादजी ने! यहाँ अध्यात्मदृष्टि से शब्दार्थ लेकर कहा है कि मिथ्यात्वादि विषयों का त्याग करके सम्यग्दर्शन की विशेष शुद्धि प्राप्त करना वह परिहार विशुद्धि है। दूसरे प्रकार से कहें तो मिथ्यात्व - श्रद्धा का विषय पर है । विपरीत श्रद्धा का विषय पर है। राग-द्वेष, यह... यह... यह... पूरी चीज सम्यग्दर्शन का विषय है। समझ में आया ? मिथ्यात्वश्रद्धा में तो यह राग, द्वेष, पुण्य, पाप यह... यह... यह... फिर यह अल्पज्ञ यह अस्ति पूरा आता है। ऐसा विषय जिसे छूट गया है, उसे सम्यग्दर्शन में स्वविषय जिसे प्राप्त हुआ है और रागादि में परविषय पर है । राग-द्वेष की पर्याय में झुकाव पर प्रति जाता है, उस श्रद्धा का विषय पर था, इस राग-द्वेष की अस्थिरता में भी, प्रशस्त देव गुरु आदि या अप्रशस्त स्त्री, परिवार • उसका विषय पर ऊपर जाता है। इसका विषय ऐसा अन्दर में बदल गया है। समभाव से जिसने आत्मा को विषय बनाया है - ऐसे चारित्र को परिहारविशुद्धिचारित्र अध्यात्म शब्दार्थ से कहा है । आहा....हा... ! समझ में आया ?
दिगम्बर आचार्यों ने भिन्न-भिन्न ग्रन्थ में भिन्न-भिन्न विधि से आत्मा को गाया है। समझ में आया? क्योंकि आचार्य का क्षयोपशम भी, भिन्न-भिन्न व्यक्ति है इसलिए (भिन्न-भिन्न) होता है और उनकी स्थिरता के प्रकार में भी बहुत अन्तर पड़ता है । सद्गुण हानि - वृद्धि होती है, भले छठवाँ गुणस्थान हो परन्तु पर्याय के भेद हैं । इसलिए उनकी कथन पद्धति में भी अलग-अलग प्रकार की शैली से अध्यात्म को प्रसिद्ध किया है। समझ में आया ?
शुद्ध आत्मा का ( निर्मल) अनुभव ही मोक्षमार्ग है । उसके बाधक