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गाथा-१०२
प्रत्याख्यान पूर्व का अभ्यास आदि किया हो तो उसे होता है। यह तो किसकी दशा, इस प्रकार (कहा है) परन्तु यहाँ तो उसे वास्तविक परिहार, वास्तविक परिहार को मिथ्याश्रद्धा का त्याग सम्मदसण-सुद्धि उसका वास्तविक परिहार कहते हैं, यहाँ तो... आहा...हा...!
मिच्छादिउ जो परिहरणु सम्मदसण-सुद्धि।
सो परिहारविसुद्धि मुणि लहु पावहि सिवसिद्ध॥१०२॥
जो मिथ्यात्वादि का त्याग करके.... आदि शब्द है न? मिथ्यात्व – भ्रम, अस्थिरता, अव्रत, कषाय आदि के मलिन परिणाम, वहाँ से परिहार उठाया। समझ में आया? जिसने परमात्मा निजस्वरूप का अन्तर श्रद्धा और ज्ञान द्वारा सत्कार किया है, आदर किया है। जिसने परमात्मा स्वयं पूर्णानन्दस्वरूप है – ऐसा श्रद्धा और ज्ञान में उपादेय रूप से किया है, उसका अर्थ कि उसका सत्कार, आदर किया है। अनादि से उसका अनादर करता था और पुण्य तथा पाप के विकल्पों का अनादि से अकेला एकान्त आदर करता था। समझ में आया? उसे छोड़कर जो सम्यग्दर्शन की शुद्धि प्राप्त करना... वहाँ 'एक' शब्द लिया है। यह तो अष्टपाहुड़ में आता है न? सम्मइंसण... एक सम्यक्त्व में परिणत हुआ आठ कर्मों का नाश करता है – ऐसा अष्टपाहुड़ में श्लोक है।कुन्दकुन्दाचार्य... वहाँ जोर देना है - सम्यग्दर्शन। स्वरूप की जो श्रद्धा पूर्ण-पूर्ण हुई है। उसकी ओर के झुकाव में वही का वही परिणमन ऐसा जहाँ चला (तो) आठों ही कर्म का नाश हो जाता है। 'समस्त परिणमणुं अठ कम्म' नाश होता है – ऐसा पाठ है। समझ में आया?
इसी प्रकार भगवान परमानन्द अनन्त गुण का धाम की जहाँ अन्तरस्वभाव में एकाकार होकर थाप मारी, आदर किया कि यही आत्मा है (वहाँ) सब परिहार हो गया। समझ में आया? मिथ्यात्व का परिहार और राग-द्वेष का भी जहाँ परिहार अर्थात् त्याग अर्थात् अभाव हुआ और भगवान आत्मा के स्वरूप की पूर्ण प्रतीति का आदर और स्वरूप में स्थिरता हुई, उसे यहाँ परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं । आहा...हा...! दर्शन पर अधिक जोर दिया है न!
वस्तु सम्यग्दर्शन बिना एक कदम भी धर्म में आगे नहीं चल सकता। भगवान पूर्णानन्द प्रभु जिसकी दृष्टि में परमात्मा निजस्वरूप का साक्षात्कार हुआ, उसे