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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ३६५ यह अध्यात्म की बात की है न, उसकी - साधु की कितनी ही बात की है, ठीक है। उसका अन्तिम श्लोक तत्त्वार्थसार का है। जहाँ हिंसादि के भेद से पापकर्मों का त्याग करना या व्रत भंग होने पर प्रायश्चित लेकर फिर व्रती होना, सो छेदोपस्थापना चारित्र है। दो प्रकार का लिया है न? दो प्रकार हैं। प्रवचनसार में चरणानुयोग (सूचक चूलिका) में दो प्रकार हैं। सामायिक में से भेद पड़कर स्थिर रहना या छेद करके स्थिर रहना – यह दो प्रकार के हैं। कहो, समझ में आया? अब तीसरा श्लोक १०२, यह बहुत साधारण बात है। इसलिए नहीं लेते। देखो! परिहारविशुद्धिचारित्र की व्याख्या अध्यात्म की। परिहारिविशुद्धि चारित्र मिच्छादिउ जो परिहरणु सम्मदसण-सुद्धि। सो परिहारविसुद्धि मुणि लहु पावहि सिवसिद्ध॥१०२॥ मिथ्यात्वादिक परिहरण, सम्यग्दर्शन शुद्धि। सो परिहार विशुद्धि है, करे शीघ्र शिव सिद्धि॥ अन्वयार्थ - (जो मिच्छादिउ परिहरणु) जो मिथ्यात्वादि का त्याग करके (सम्मदंसणसुद्धि) सम्यग्दर्शन की शुद्धि प्राप्त करना। ( सो परिहारविसुद्धि मुणि) वह परिहारविशुद्धि संयम जानो (लहु सिवसिद्धि पावहि ) जिससे शीघ्र मोक्ष की सिद्धि मिलती है। मिच्छादिउ जो परिहरणु सम्मदसण-सुद्धि। सो परिहारविसुद्धि मुणि लहु पावहि सिवसिद्ध ॥१०२॥ ऐसी शैली ली है। परिहारविशुद्धि अर्थात् प्रचलित रूढ़ि अनुसार तो ऐसा है कि स्वरूप जो है, परिहारविशुद्धि का वह विशेष साधु को प्राप्त होता है। तीस वर्ष के बाद, अमुक प्रकार का संसार में रहा हो और फिर भगवान के पास आठ वर्ष रहकर संगति
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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