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गाथा - १०१
यहाँ तो उसी प्रकार अध्यात्म से लिया है। भगवान आत्मा... छेद - उपस्थ, उपस्थ। भगवान आत्मा समस्वभावी वीतरागी बिम्ब आत्मा है । उसे वीतरागी स्वभाव से विरुद्ध हिंसा झूठ आदि का परिणाम जो विषम है, उन्हें छोड़कर स्वभाव में आत्मा को थवेइ स्थापित करता है, उसे दूसरा चारित्र छेदोपस्थापनीय कहा जाता है । कहो समझ में आया ? अन्तिम गाथाएँ हैं न ! चारित्र, मोक्ष का मूल है न! दर्शन-ज्ञान भले हो परन्तु मूल चारित्र, वह मोक्ष का कारण है । चारित्त खलु धम्मो और पंचास्तिकाय में अन्त में चारित्र लिया है न! चारित्र में थोड़ा बाकी रहे, उतना पर समय बाकी है... चारित्र पूरा हो जाये, चारित्र की रमणता वही मोक्ष का कारण है। हाँ, वह चारित्र, सम्यग्दर्शन के बिना नहीं होता, यह अलग बात है परन्तु मोक्ष का साक्षात् कारण तो स्वरूप की रमणता है । आहा... हा...! वह रमणता स्वरूप के दर्शन और ज्ञान के बिना नहीं होती है। भगवान आत्मा समस्वभावी चैतन्यसूर्य के दर्शन, अवलोकन, उसकी श्रद्धा और उसके ज्ञान बिना स्वरूप में स्थिरता - ऐसा चारित्र, रमणता – ऐसा चारित्र नहीं होता परन्तु वह चारित्र तो साक्षात् मोक्ष का कारण है । आहा....हा...! समझ में आया ?
वह दूसरे चारित्र का धारक है - ऐसा जानना। यह चारित्र पंचम गति को ले जाता है। पाठ है न देखो ! पंचम - गइ णेइ पहुँचाता है, पंचम गति पहुँचाता है, ले जाता है। भगवान आत्मा स्वरूप की रमणता करते, ध्रुवस्वरूप भगवान में रमणता करते हुए ध्रुव पर्याय ऐसी प्रगट होती है, ध्रुव पर्याय अर्थात् है तो पर्याय परन्तु उसे कूटस्थरूप ऐसी की ऐसी ही स्थिरता कायम रहती है; इसलिए उसे एक न्याय से ध्रुव और कूटस्थ भी कहा जाता है।
ध्रुवस्वरूप में स्थिरतारूपी पर्याय प्रगट होने से केवलज्ञान को भी एक न्याय से कूटस्थ कहा है। पंचास्तिकाय... है न ? अपेक्षा से । ऐसा का ऐसा और ऐसा का ऐसा है । स्थिरता ऐसी की ऐसी, ऐसी की ऐसी स्थिरता रहती है । जैसे, स्वयं स्थिरबिम्ब भगवान है, उसमें स्थिरता का अन्तर अभ्यास होने पर वह स्थिरता ऐसी की ऐसी कायम रह जाती है । भले पलटे भले, परन्तु स्थिरता ऐसी की ऐसी वीतरागता कायम रहती है; इसलिए उसे ध्रुव भी एक न्याय से कहा जाता है। समझ में आया ? आहा... हा...!