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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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हिंसादिक परिहार से, आत्म स्थिति को पाय।
यह दूजा चारित्र लख, पंचम गति ले जाय॥ अन्वयार्थ – (जो हिंसादिउ-परिहारू करि अप्पा हु ठवेइ) जो कोई हिंसा आदि पापों को त्याग करके आत्मा को स्थिर करता है (सो वियऊ चारित्तु मुणि) सो दूसरे चारित्र का धारी है, ऐसा जानो (जो पंचम-गइ णेइ) यह चारित्र पञ्चम गति को ले जाता है।
हिंसादिउ-परिहारू करि जो अप्पा हु ठवेइ।
सो वियऊ चारित्तु मुणि जो पंचम-गइ णेइ॥१०१॥
जो कोई आत्मा, हिंसा आदि पाप के परिणाम के अभाव-स्वभावस्वरूप आत्मा को स्थिर करता है.... अप्पा हु ठवेइ नास्ति की। हिंसा, झूठ, चोरी आदि के भाव का अभाव करके, यह तो नास्ति से बात कही, भगवान ज्ञायकस्वरूप में ठवेइ... ठवेइ... 'छेदोपस्थापना' शब्द है न? भाई! इससे उसमें से यह शब्द निकाला। ऊपर 'स्थाप' शब्द है सही न? अहा... ! इसलिए अध्यात्म की बात की। छेद + उपस्थित । छेद – विकार का छेद करके आत्मा में स्थापित होना, उसे छेदोपस्थापना - ऐसा अर्थ यहाँ किया है। अध्यात्म है। परिहार में ऐसा लेंगे... यथाख्यात में ऐसा लेंगे। सूक्ष्म सम्पराय वह खोटा है, वह चारित्र यथाख्यात सूक्ष्म सम्पराय लिखा है, यह सूक्ष्म सम्पराय नहीं, यह यथाख्यात है। सूक्ष्म शब्द पड़ा है न! इसलिए भ्रम हो गया है। समझ में आया? आयेगा गाथा में।
यहाँ कहते हैं, हिंसादिउ-परिहारू भगवान आत्मा आनन्दस्वरूप के भान में, काल में, स्वरूप की स्थिरता आत्मा में स्थापता है, तब उसे हिंसा आदि परिणामों का वहाँ अभाव होता है। अभाव होकर आत्मा में आत्मा को स्थापित करता है, वह वियऊ चारित्तु... योगीन्द्रदेव उसे छेदोपस्थापना कहना चाहते हैं। समझ में आया? वरना तो सामायिक में स्थिर होता है, उसमें कोई विकल्प दोष लगा हो, उसे छेदकर फिर स्थिर हो तो उसे छेदोपस्थापनीय कहते हैं।