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गाथा-१०२
मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र है। उन्हें छोड़कर जहाँ ज्ञान और चारित्र एकदेश झलकते हैं... ज्ञान और चारित्र। स्वरूप का ज्ञान । ज्ञान और चारित्र अर्थात् ? यह ज्ञानमूर्ति वह झलकती है, पर्याय में प्रगट होता है और स्वरूप की स्थिरता आत्मा में प्रगट होती है। उसकी पूर्ण प्रगटता के लिए अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन कषाय का नाश करके जैसे-जैसे स्वानुभव का अधिक अभ्यास होता है, वैसे -वैसे कषाय की मलिनता कम होती जाती है। श्रावकपद में देशचारित्र होता और साधुपद में सकलचारित्र होता है। समझ में आया? इन्होंने भेद पाड़ा है। वस्तुतः तो वह परिहारविशुद्धि है । वह तो मुनि को होता है परन्तु इन्होंने जरा भेद (किया है), वास्तव में यह तो मुनि को है।
बात जरा ऐसी ली है कि सम्यग्ज्ञान के कारण से धर्मी को राग-द्वेष का परिहार कैसे वर्तता है ? कि उसे किसी पदार्थ की विस्मयता नहीं लगती है। जो पदार्थ जिस स्वरूप में परिणमता है, उस प्रकार उसका स्वभाव वर्तमान पर्याय का है। इस कारण उसे विस्मयता से, विस्मयता से, जिसे होश से जो राग होता है और अविस्मय कि ऐसा कैसे हो? ऐसी ग्लानि से जो द्वेष होता है - ऐसा राग-द्वेष, ज्ञान में पदार्थ की यथार्थ स्थिति के भासन के कारण विस्मयता या छेदता न होने से छह द्रव्यों के मूल गुण और पर्यायों के स्वरूप को केवलज्ञानी की तरह यथार्थ और शंकारहित जानता है। श्रुतज्ञान में भी परोक्षता है – इतनी बात है परन्तु श्रुतज्ञान, केवलज्ञानी जाने उतना ही, वैसा ही जानता है । समझ में आया? वह अपने ज्ञान में छहों द्रव्य (यथार्थ जानता है)।
___कल रात्रि में थोड़ा कहा था और अपने कलश-टीका में आ गया है। कलश-टीका है न? उसमें (आ गया) कि आत्मा का एक त्रिकाली ज्ञानगण है. उसकी एक समय की दशा है, वही छह द्रव्यों को जानने की ताकतवाली दशा है। समझ में आया? आत्मा वस्तु है, उसका त्रिकाली ज्ञानगुण है, उसकी एक समय की अवस्था है; वह एक समय की अवस्था, छह द्रव्यों को जानने की, मानने की... भले अभी परलक्ष्यी है परन्तु एक समय की पर्याय में इतनी ताकत है। समझ में आया? कलश-टीका में अधिक लिया है। इनने उतारा है, राजमलजी ने इस प्रकार उतारा है और बात यथार्थ है। पर्याय को मानता नहीं,