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गाथा - १००
यहाँ कहते हैं कि जहाँ इस माहात्म्य में आया, वहाँ राग-द्वेष छूट गये, उसे प्रगट सामायिक है - ऐसा केवली भगवान कहते हैं। समझ में आया ? राग-द्वेष का त्याग ही सामायिक है। यह भाई बात करते हैं । मिथ्यादृष्टि को ऐसा नहीं है। सम्यग्दृष्टि का भाव बदल जाता है। वहाँ से शुरु करते हैं । मिथ्यादृष्टि में राग और अल्पज्ञता, और संयोग के अस्तित्व में ही मेरा अस्तित्व है - ऐसा स्वीकार करता है। मिथ्या अर्थात् असत् दृष्टिवाला संयोग में या विकार में या अल्पज्ञ आदि पर्याय में अपना अस्तित्व स्वीकार करता है । इसलिए उसे असत् दृष्टि में राग-द्वेष साथ ही बसे हुए हैं और यह अल्पज्ञ देखे वहाँ अरे... ऐसा ? (ऐसा लगता है) विशेष देखे तो, आहा... हा... ! पण्डित है, अधिक (−ऐसा लगता है) । पर्याय से हीनाधिक देखे वहाँ उसे (राग-द्वेष हुए बिना नहीं रहते । हीन देखो तो ऊं...हूँ... (होता है) । परन्तु यह सब दृष्टि उसे स्वयं की पर्याय की दृष्टि है तो दूसरे के पर्याय के भेद वैसे देखने से उसे छोटा-बड़ापन देखकर राग-द्वेष किये बिना नहीं रहता। समझ में आया ?
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सम्यग्दृष्टि का भाव बदल जाता है, वह संसार के सुख का श्रद्धावान नहीं रहता । आहा...हा... ! दृष्टि में इसकी विपरीतता है, उसका उल्लास पुण्य के परिणाम में, पाप के परिणाम में, उसके बन्ध में और उसके फल में वह उल्लसित वीर्य उसका वहाँ रुक गया है । आहा...हा.... ! अर्थात् पर में ही सुख मानता है। होंश करके मानता है न ? ठीक करके मानता है न ? पुण्य-पाप के परिणाम, अल्पज्ञता या निमित्तता में ठीक करके माना अर्थात् उसमें सुख माना परन्तु आत्मा आनन्दमूर्ति है, मुझमें आनन्द है - ऐसा उसने नहीं माना। समझ में आया ? आहा...हा... !
छियानवें हजार स्त्रियों के वृन्द में पड़ा परन्तु वह आनन्द कहीं नहीं मानता, हाँ! आहा...हा.... ! अरे ! यह तो दृष्टि की कितनी कीमत है ! आहा... हा.. ! जिसके आनन्द के साक्षात्कार भगवान में देखता है, वह छियानवें हजार ( रानियों के) भोग में दिखता हो (परन्तु उसकी दृष्टि गुलाँट खा गयी है। भाव बदल गया है। वह संसार के सुख का श्रद्धावान नहीं रहता । आहा... हा...! यह इन्द्र आकर ऐसे सम्मान दे... किसे मान ?
आनन्द के उल्लिसित वीर्य की स्फुरणा को मुझमें पड़ी है, इसलिए यह इन्द्र यह हैं, वे मुझे ठीक मानते हैं - ऐसा विकल्प करना वहाँ नहीं रहता। उसके कारण नहीं रहता, किसी