________________
योगसार प्रवचन (भाग - २)
३५७
कमजोरी के कारण असक्ति से अस्थिरता हो जाये, वह चारित्रदोष है। उसके कारण हो, वह मिथ्यादृष्टि का दोष है। समझ में आया ?
मुमुक्षु - इष्ट मानता है ।
उत्तर इष्ट को मानकर जो कहते हैं कि विकार मुझे किसके कारण हुआ, (वह) दृष्टि मिथ्यात्व है । वस्तु इष्ट-अनिष्ट है नहीं । वस्तु ज्ञेय है । ज्ञेय के दो भाग करते हैं, वे मिथ्यादृष्टि (भाग) करते हैं। यह मुझे ठीक है, इसलिए मुझे राग हुए बिना रहता ही नहीं; यह मुझे अठीक है तो द्वेष हुए बिना नहीं रहता । ज्ञानी को ज्ञेय के दो भाग हैं ही नहीं । ज्ञानी ज्ञेय को ज्ञेयरूप से जानता है, इष्ट-अनिष्ट उसकी बुद्धि में नहीं है परन्तु कमजोरी के कारण इष्ट-अनिष्ट की वृत्तियाँ उठ जायें, वे पर के कारण नहीं है। इष्ट-अनिष्ट पदार्थ के कारण नहीं और स्वभाव के कारण हुई हैं; कमजोरी के कारण जरा (राग) खड़ा हो जाये, (वह) असक्ति का चारित्रदोष है । आहा... हा... ! समझ में आया ?
I
सम्यग्दृष्टि का भाव बदल जाता है । पलट जाता है, दृष्टि में पलटा खाता आहा...हा... ! संसार के सुख का श्रद्धावान नहीं रहता । कहीं उसे सुख कहीं श्रद्धा में भासित नहीं होता; भगवान आत्मा में आनन्द भासित होता है । आहा... हा... ! जिसके इन्द्र मित्र हों... चक्रवर्ती के मित्र इन्द्र होते हैं, सिंहासन में आकर साथ बैठते हैं । (उसमें) कहीं सुखबुद्धि नहीं दिखती । आहा... हा... ! हीरा का सिंहासन हो... वह तो चक्रवर्ती है न! हीरा का सिंहासन (हो) इन्द्र आकर (बैठता है) । पधारो... पधारो... ऊपर से इन्द्र (आवे), साथ बैठे... मित्र । तो उसमें यह ठीक हुआ - ऐसा दृष्टि में है ही नहीं । आ... हा... ! यह सब पूर्व के पुण्य का खेल मेरे ज्ञान में ज्ञेय है, वह जानने योग्य है। समझ में आया ? यह मेरा निवास, मेरा वास है, वहाँ मेरा निवास है । मेरा वास तो स्वभाव में - आनन्द में है, वहाँ मेरा निवास है। यह राग और इन संयोग में मैं हूँ ही नहीं। समझ में आया? ऐसी सम्यग्दृष्टि की श्रद्धा पलट गयी होती है ।
मिथ्यादृष्टि की अनादि से दूसरी (श्रद्धा है)। उसे जहाँ हो वहाँ सुख भासित होता है। भगवान में सुख भासित न होकर जहाँ-तहाँ सुख भासित होता है। पुण्य - परिणाम में और पाप - परिणाम में तथा संयोग अच्छे मित्र मिले, स्त्री मिली, या लड़का मिला,