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योगसार प्रवचन (भाग - २)
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श्रावक को सामायिक में होती है। जयसेनाचार्यदेव की टीका। भाई ! फूलचन्दजी ने डाला था कि भाई ! सामायिक में किसी समय सामायिक आदि में भी श्रावक को भी शुद्ध उपयोग होता है और भावना... भावना का अर्थ ही होता है । भावना विकल्प उसमें ऐसा होता है, ऐसी भावना तो पूरे केवलज्ञान की है। उसकी कहाँ बात है यहाँ ? यह शुद्धोपयोग का परिणमन सामायिक में किसी समय, सामायिक के अतिरिक्त भी किसी समय पाँचवें गुणस्थान में चौथे में भी ऐसा हो जाता है। किसी समय वह दशा होती है । अन्दर के पूर्ण को - स्वरूप को निर्विकल्परूप से स्पर्शने का भाव अमुक काल में न आवे तो वस्तु नहीं रहती है । आहा... हा... ! सूक्ष्म बात है । यह है, जयसेनाचार्यदेव की टीका में है । उस दिन एक बार निकाला था। समझ में आया ?
इस भावना का अर्थ क्या है ? समभाव । यहाँ तो ऐसा कहा है राय-रोस बे परिहरिवि जो समभाउ मुणेइ । जानना, ऐसा है । समभाव की भावना करे अर्थात् वीतरागी पर्याय प्रगट करे। अपने स्वभाव में... भाई ! ऐसा अवसर, ऐसा काल मिला, प्रभु ! तुझमें पूर्णता पड़ी है न प्रभु ! तुझे कहाँ ढूँढ़ने जाना है ? तेरी नजर पड़े, तुझे निहाल होने का रास्ता है । आहा... हा... ! निहाल होने का रास्ता कहीं बाहर नहीं है । आहा... हा...!
भगवान आत्मा.... ! कहते हैं कि जिसने राग-द्वेष के विषमता के भेद का लक्ष्य छोड़कर, समभाव को मुणेइ, समभाव को करता है, वहाँ ऐसा लेना । मुणेइ का अर्थ जानता है (होता है) परन्तु उसका अर्थ करते हैं (ऐसा लेना) जो समभाव प्रगट करता है । उसे प्रगटरूप सामायिक जानो - ऐसा केवली भगवान ने कहा है । देखो, इसमें यह डाला । केवली एम भणेइ उसमें जिनवर एम भणेइ ( था)। सर्वज्ञ परमेश्वर, जिन्हें एक समय में स्व-पर की पूर्णता का ज्ञान प्रगट व्यक्त (हुआ), शक्ति में था, वह प्रगट हो गया है, ऐसे परमेश्वर ने सामायिक ऐसी कही है। कहो, समझ में आया ? आहा... हा... !
इस वस्तु का माहात्म्य और वस्तु के स्वभाव (इसे पता नहीं है)। उसे ऐसे मानो बाहर के माहात्म्य की आड़ में यह आत्मा तो कुछ चीज ही नहीं... वह हो गयी अधिक हो गयी। अधिक शुभराग विकल्प किया और या विशेष ज्ञान हो गया नौ पूर्व का... लोन ! (वहाँ तो) आहा....हा...! (हो गया इसलिए) वह अधिक हो गया । यह बड़ा भगवान रह जाता है न! पूरा चैतन्यपिण्ड के माहात्म्य में नहीं आता ।