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________________ योगसार प्रवचन (भाग - २) ३४९ समझ में आया ? कहो ! यह सामायिक ! कितनी सामायिकें की होंगी कितनों ने, यह फिर सामायिक किस प्रकार की निकली ? आहा... हा...! यह एक समय की सामायिक भव के अभाव को करे, इससे इसमें भव का अभाव लिखा है न! क्योंकि ऐसा समभाव हो, उसे भव का अभाव हुए बिना रहता ही | वह तो उसका फल रखा है। हिन्दी में रखा है और यह तो गुजराती में इसमें रखा है। यह तो भाई ने फिर श्लोक अनुसार शब्दार्थ करके भाई ने किया है। उसमें जरा फल डाला था, जिनवर ऐसा कहते हैं, भगवान आत्मा ज्ञानमय, जिसने वस्तु की त्रिकालीता, अभेदता स्वभाव के साथ इस स्वभाववान को है - ऐसा जिसने दृष्टि से देखा और स्थिर हुआ, उसे भव होते ही नहीं, क्योंकि वस्तु में भव और भव का भाव नहीं है । इस ज्ञानमय देखने में क्या आया ? ज्ञानमय आत्मा में क्या आया ? भव है इसमें ? भव का भाव है ? वह तो पर में गया, उसमें कहाँ है वह ? आचार्यों के शब्द हैं, यह तो आचार्यों के शब्द । इनमें तो गूढ़ गम्भीरता है । इसमें एक-एक शब्द में बहुत आगम बसे हैं। समझ में आया ? ज्ञानमय भगवान है, इस प्रकार जिसे वर्तमान दशा द्वारा त्रिकाल ज्ञानमय है - ऐसा जिसने देखा, उसमें भव कहाँ है ? द्रव्य में भव कहाँ ? गुण में भव कहाँ ? और जिस द्वारा समभाव से देखा उस भाव में भव कहाँ ? और उस भाव में भव के कारणरूप भाव कहाँ ? वह भाव तो पृथक् रह गया। समझ में आया ? भगवान आत्मा भव के अभाव - स्वभावस्वरूप है तो भव के अभाव स्वभावरूप द्रव्य, गुण, पर्याय - तीनों में व्याप्त गया। लो, और यह आया । क्या कहा ? कि भगवान आत्मा जहाँ ज्ञानमय है - ऐसा कहा तो ज्ञानमय यह तो ज्ञान स्वभाव है (और) आत्मा स्वभाववान है - ऐसा जहाँ अन्दर निर्णय और समभाव प्रगट हुआ, उसकी पर्याय में भी ज्ञानमय ( भाव प्रगट हुआ), राग में नहीं आया; वहाँ भी ज्ञानमय की पर्याय, श्रद्धामय की पर्याय, स्थिरता की पर्याय प्रगट हुई, इसलिए भव के अभाव-स्वभाववाला द्रव्य, उसका निश्चय होने पर वह भव का अभाव - स्वभाव तीनों में व्याप्त हो गया । द्रव्य भव का अभावभाव, गुण में भव का अभावभाव और उसे समभाव प्रगट हुआ, उसमें भव का अभावभाव। इससे उसमें विषमभाव नहीं है । आहा... हा.... ! समझ में आया ? यह वस्तु ऐसी है । यह तो जिनवाणी एम भणइ यह तो जाना है - ऐसा कहते हैं। कुछ किया है भगवान ने दूसरे का ? आहा... हा...! देखो !
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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