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गाथा-९९
निर्जरा का कारण होता है । विकल्परहित भाव में रहना ही सामायिक है, वही मुनिपद है, वही मोक्षमार्ग है, वही रत्नत्रय की एकता है। लो! ओ...हो... ! इसने बात का स्वरूप पदार्थ का (जाना नहीं)। विकल्प आदि हो, राग आदि हो, कमजोरी का भाव (हो) परन्तु कहते हैं कि वह कोई स्थायी चीज है ? समझ में आया? पर की ओर के झुकाववाला भाव, वह स्थायी चीज है ? वह तो कमजोरी की चीज है। कमजोरी तो वास्तव में व्यवहारनय का, पर्यायनय का विषय हुआ, वह आदरणीय विषय नहीं रहा, जानने योग्य रहा; आदरणीय विषय तो भगवान त्रिकाल ज्ञानमय, आनन्दमय, स्वभावमय, भव के अभाव स्वभावमय आत्मा है – ऐसी दृष्टि होने पर उसे ज्ञान-दर्शन और चारित्र की समभावदशा प्रगट होती है। उसे सामायिक कहते हैं । आहा...हा...!
दिगम्बर सन्तों ने तो थोड़े-थोड़े श्लोक में तो महा-कितना ही भर दिया है ! हैं ? ओ...हो...हो...! मुनियों की क्या बात! छठे-सातवें में झूलते सन्त, उन्हें यह लिखने का एक विकल्प आया है, हाँ! वह राग भी मुझमें कहाँ है ? मुझमें कहाँ है ? मैं उसे कहाँ अपने में देखता हूँ ? आहा...हा... ! लिखने के काल में विकल्प है, वाणी की रचना तो जड़ की है। यह वाणी, यह श्लोक कहीं मुझसे रचित नहीं है।
__ जहाँ भगवान आत्मा ज्ञानमय है – ऐसा जहाँ देखा, वहाँ विकल्प उठा उसमय नहीं, वह तो पृथक् रह गया। वाणी की क्रिया तो पृथक् जड़ में रह गयी और दूसरे आत्माओं के भेद-भाववाले भाव, वह तो भंग-भेद पर्यायनय के विषय में रह गये। अकेला भगवान, ज्ञान के भगवान सब हैं। पूरा लोक परमात्मा से भरा है। आहा...हा...! दूसरे जल में विष्णु, थल में विष्णु, कहते हैं (- ऐसा नहीं) समझ में आया? पूरा चौदह ब्रह्माण्ड अकेले परमात्मा के पद से ही भरा हुआ पूरा लोक है, इस हिसाब से। सत्व पृथक् अनन्त के, परन्तु हैं सब भगवान, सब ज्ञानमय, पिण्डमय प्रभु हैं सब। दूसरों को तो पता नहीं (तो कहते हैं) जल में विष्णु, थल में विष्णु.... भगवान एक व्यापक है – ऐसा है नहीं तीन काल में । समझ में आया?
इसलिए आचार्य ने भाषा क्या प्रयोग की है? सव्वे शब्द प्रयोग किया है। भिन्न -भिन्न रखकर बात की है। सबको एक करके नहीं। तीन काल में एक नहीं हो सकते,