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________________ गाथा - ९९ यह (मैं) ज्ञानमय हूँ और यह सब ज्ञानमय है - ऐसी ज्ञान की पर्याय के सामर्थ्य की दशा है। उसे जानने से मैं भी ज्ञानमय हूँ, पर्याय नहीं। ये सब ज्ञानमय है - ऐसा समभाव से राग की अपेक्षा बिना, पर की अपेक्षा बिना, स्व के सामर्थ्य में स्व-पर का जानना परिणमे, उसे समभाव कहते हैं । आहा... हा... ! समझ में आया ? ३४८ उसी के सामायिक होती है। देखो! यह सामायिक की व्याख्या । फिर आठ कर्म लम्बी बात की है । अपने संक्षिप्त कर दी। भाई ! संक्षिप्त कर दी न! आठ कर्म में विषमता और विपरीतता या हीनाधिकपना हो, वह पर्यायनय का विषय है । उसे गौण करके... क्यों ? कि स्वयं ने भी अपने पर्यायनय के विषय को गौण किया है। भेद को, राग को, अल्पज्ञता को गौण करके; अभाव करके नहीं; गौण करके । व्यवहार का अभाव करके नहीं परन्तु व्यवहार को गौण करके उसे 'नहीं है' (ऐसा कहा) और (निश्चय को) मुख्य करके वह ‘है' ऐसा कहा है । केवली भगवान ज्ञान और आनन्दमय है, उसे मुख्य करके उसकी अस्तिपने का जहाँ स्वीकार हुआ (वहाँ) समभाव प्रगट हुआ। समझ में आया ? फिर कहते हैं, इस प्रकार समभाव लाकर जब ध्याता परजीवों की ओर से उपयोग हटाकर.... अन्तिम बाद की बाद है, अन्तिम ... केवल अपने स्वभाव में जोड़ता है, तब निश्चल हो जाता है, आत्मस्थ हो जाता है । पीछे, एकदम पीछे अन्तिम थोड़ा (बीच में) लम्बा बहुत किया है। वह तो कर्म की बात से लम्बा किया है । इस कर्म का ऐसा होता है और ऐसा होता है, यह विविधता नहीं देखना इतना । निश्चल हो जाता है, आत्मस्थ हो जाता है। भगवान आत्मा ज्ञानमय, आनन्दमय, स्वभावमय, स्वभाववान, ज्ञानवान, ज्ञानमय ऐसा ही उसका स्वरूप है। ऐसे जो आत्मस्थ होता है, उसे समभाव प्रगट होता है । आत्मानुभव में आ जाता है .... वह आत्मा अनुभव में आ जाता है, स्थिरता । तब ही परम निर्जरा के कारणरूप सामायिक चारित्र का प्रकाश होता है । शुद्धि, ज्ञानमय प्रभु चैतन्यमय है – ऐसी दृष्टि, ज्ञान और उसके ओर का झुकाव होकर, समभावदशा हुई. इस दृष्टि से पर को भी निश्चय से उसके अपने ज्ञान में स्व-पर सामर्थ्य के कारण पर को भी ज्ञानमय देखने से उसकी दशा में निर्जरा का कारण समभाव उत्पन्न होता है । आहा....हा... !
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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