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गाथा-९९
उसका नाम ही सविकल्प है। यह तो अपना स्वभाव है। सिद्ध का केवलज्ञान भी सविकल्प है। समझ में आया? आहा...हा...!
यहाँ यही कहते हैं। भगवान! सर्व जीव ज्ञानमय है - ऐसा जानना कहा न? भाई! स्वयं जाने और पर को जाने, दोनों आया। मैं भी ज्ञानमय हूँ तो ज्ञान का स्वभाव है कि मैं भी ज्ञानमय हूँ, सभी ज्ञानमय है - ऐसा उनका जानना... जानना.. दोनों का, यह कहीं राग का कारण नहीं है; यह तो उसका स्वभाव है। स्व-पर को जाननेरूप परिणमना, होना वह ज्ञान की पर्याय का स्वभाव है। समझ में आया? इससे वह सविकल्पज्ञान ज्ञातारूप मैं यह ज्ञान हूँ - ऐसा जो पर्याय में ज्ञातापना प्रगट हुआ, वह पर्याय स्व-पर प्रकाशक प्रगटी परन्तु वह रागरहित समताभाव की प्रगटी। समझ में आया? आहा...हा...!
देखो न ! आचार्य ने इसलिए कहा! 'सव्वे जीवा णाणमया, जो सम-भाव मुणेइ' ऐसा लिया है न वापस ? ऐसा नहीं कि अकेले को जाने, ऐसा उसमें नहीं लिया परन्तु यह तो उसका स्वभाव है, ऐसा कहते हैं । मैं ज्ञानमय ऐसा जाना तब भी श्रद्धा, ज्ञान, और शान्ति ही उत्पन्न हुई और सभी जीवों के ज्ञान का स्वभाव है कि स्व-पर को जानना - इतना ही उनका उस सामर्थ्य का सत्व है। वह राग नहीं, इसलिए ऐसे बाहर के सभी ज्ञान में आये निश्चय से उसे यहाँ देखो ऐसे निश्चय से दूसरों को देखो। उनकी विषमता
और पर के आधीन होती दशाएँ उन्हें न देखने से, इसे देखने से विषमता के कारण यह ठीक-अठीक जीव है - ऐसा उसे राग-द्वेष उत्पन्न होने का स्थान नहीं रहता; और स्वयं में भी जब ज्ञानमय – ऐसा आत्मा है – ऐसा अन्तर में जानने से उसे भी राग और द्वेष उत्पन्न होना, हीन ज्ञान है इसलिए हीन हूँ, अधिक ज्ञान है, इसलिए बड़ा, यह भी उसमें नहीं रहता। समझ में आया?
उसी के प्रगटरूप से सामायिक जानो - ऐसा श्री जिनेन्द्र कहते हैं।आहा...हा...! आचार्यों को भी जिनेन्द्र को रखना पड़ा है, हाँ! तीन लोक के नाथ सर्वज्ञदेव... तो सर्वज्ञ नहीं जानते यह? सब को नहीं जानते? और सबको जानना वह तो ज्ञानमय पर्याय है। सबको जानना, वह विकल्प नहीं; वैसे ही सब को जानना अर्थात् परज्ञानमय दशा है ऐसा नहीं है। सब को जानना वह ज्ञानमय, आत्मज्ञानमय जीव की दशा है। वीतरागी