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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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पण्डितजी ! आलापपद्धति में। समझ में आया? इस अपेक्षा से यहाँ कहा है। परमभाव अकेला ज्ञानमय भगवान, उसका ज्ञान वह ज्ञान और परमज्ञानमय आत्मा, ऐसा अन्तर में दृष्टि ज्ञान करके स्थिर होने से... क्योंकि परम ज्ञानमय है, उसे तो ज्ञातादृष्टारूप रहना ही उसका स्वरूप हुआ, इसलिए वहाँ वीतरागता और सामायिक अर्थात् समताभाव की उत्पत्ति (हुई)। परमज्ञानमय आत्मा है – ऐसा अन्तर निर्णय होने पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान,
और समभाव तीनों उसमें से उत्पन्न होते हैं। समझ में आया? क्या है ? सुगनचन्द्रजी! कहाँ गया यह सब? चक्की का पड़ और .... हैं? ज्ञेय में। चक्की से दलना, ऐसा करना और वैसा करना.... वहीं के वहीं फँसे। गेहूँ को वहाँ दलना और फिर धोना... परन्तु अब यह तो सहज देह की, जड़ की क्रिया उसके कारण से होनी हो तो होती है; आत्मा उसका कर्ता नहीं है। वहाँ फँसे । बराबर क्रिया ऐसी करनी, हाँ! निर्दोष आहार, इसलिए बेचारे का समय जाता है। एक व्यक्ति कहता था, महाराज! तुम यह बात करते हो परन्तु हम तो आश्रम में रहते हैं, (इसलिए) चावल शोधना और गेहूँ शोधना, उसमें रहना (पड़ता है)। हमारे यह समझना, सुनना, विचारना, कब? तीन-तीन घण्टे वहाँ रहें कौन? परशुरामजी... परशुरामजी कहते थे।
मुमुक्षु - ....
उत्तर – सविकल्प है। सविकल्प का अर्थ क्या? राग नहीं। सविकल्प का अर्थ स्व-पर को जाने, उसका नाम सविकल्प है। सविकल्प का अर्थ राग नहीं। स्व-पर को जाने, उसका नाम ही सविकल्प है। दूसरे (गुण) स्व-पर को नहीं जानते, इसलिए दूसरे को निर्विकल्प कहते हैं। विकल्प अर्थात राग की अपेक्षा की बात नहीं है। केवलज्ञान भी सविकल्प है। सविकल्प का अर्थ स्व-पर को जानना, उसका नाम सविकल्प है। यह तो प्रवचनसार में आता है न? अर्थाकार – स्व-पर के अर्थाकार परिणमित होना, वही सविकल्प है। सविकल्प (अर्थात् ) राग-फाग की यहाँ बात नहीं है। समझ में आया?
स्व-पर प्रतिच्छेदक दो को जाननेवाला उसका नाम सविकल्प का अर्थ यह राग नहीं। स्व-पर को जानने का भाव, उसका नाम ही सविकल्प है। यह सविकल्प, राग से निर्विकल्प है। राग से निर्विकल्प है परन्तु स्व-पर को जानने के आकाररूप परिणमित होना