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________________ ३४४ गाथा-९९ की बात आवे तब कहें अरे...रे...! खिचड़ा किया है। फिर रोवे... रोवे... रोवे, हाँ! ऐसी सरलता! उन्होंने यह अर्थ बनाया है। इस श्लोक के उन्होंने सब अर्थ बनाये हैं। कितना ही घोटाला भी अन्दर होगा, परन्तु इतनी ही व्याख्या ठीक है। कितना ही घोटाला अन्दर डाला है, क्योंकि मूल तो श्वेताम्बर थे और पहली दृष्टि की फेरफार थी, उसमें से इसमें अर्थ किये, पूरी पुस्तक है 'स्वानुभवदर्पण' उसका नाम है। स्वानुभवदर्पण है, वह योगीन्दुदेव के दोहों के श्लोक चार-चार बोल हैं 'सर्व जीव है ज्ञानमय'.... 'प्रगट करे भव पार' नहीं होगा इसमें... उसमें है, हिन्दी में है। जिनवर एम भणेइ' यह तो हिन्दी में भी है। सर्व जीव हैं ज्ञानमय, जाने समताभार, सो सामायिक जिन कहे प्रगट करे भव पार। हिन्दी में किया है इसका। उसमें नहीं होगा। मुमुक्षु - सर्व जीव हैं ज्ञानमय, ऐसा जो समभाव। सो सामायिक जानिये, भाषे जिनवर राव॥ उत्तर – यह शब्दार्थ किया है, ठीक, पाठ का शब्दार्थ । भाई ने किया है। अपने पण्डित ने किया है, पाठ को स्पर्श कर । समझ में आया? यह सामायिक किसे कहना, इसमें सम्यग्दर्शन आ गया, सम्यग्ज्ञान आ गया और वीतरागभाव तीनों आ गये। भगवान आत्मा ज्ञानमय है अर्थात् अल्पपना, विकारपना, या संयोगपना उसके स्वभाव में नहीं है। ऐसी जो अन्तर स्वभावदृष्टि होना, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। ऐसा जो ज्ञानमय, आनन्दमय... यहाँ ज्ञानमय प्रधान परमभावग्राहकनय से बात की है। ज्ञान परमभावग्राहक है, परमभाव है, यह वस्तु दूसरे की अपेक्षा। क्योंकि ज्ञान स्वयं स्वविकल्प-स्वपर को जाननेवाला गुण है और दूसरे गुण अस्ति रखते हैं परन्तु स्वयं कौन है और पर कौन है? उन्हें नहीं जानते। इसलिए सभी गुणों को निर्विकल्प कहा जाता है। निर्विकल्प यह अस्ति रखता है। अपनी अस्ति को और पर की अस्ति को वे जानते नहीं हैं। भगवान आत्मा का ज्ञान स्वयं अपने को जानता है और उसके अनन्त गुणों को भी जानता है, इसलिए उस गुण को सविकल्प कहकर, साकार कहकर, उसे असाधारण परमभावग्राहक कहा गया है। आलापपद्धति' में उसका नय लिया है। परमभावग्राहकनय।
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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