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योगसार प्रवचन ( भाग - २ )
ज्ञान है। ऐसा भी अन्दर पुरुषार्थ की दृष्टि से विषमता का लक्ष्य छोड़कर समभावी आम सभी ज्ञानमय है ऐसा पुरुषार्थ से देखने पर उसे समभाव प्रगट होता है । कहो, समझ में आया ? इसमें ? है ? देखो ! सामायिक किस प्रकार ली है ! हमने उसे यह किया है, हमने यह देखा था 'सर्व जीव है ज्ञानमय' इसका अर्थ किया है। यह श्लोक है न वे सब ? तुम्हारे में है या नहीं ? क्या है ? देखो ! सर्व जीव है ज्ञानमय... श्लोक हैं। लो ! अपने सज्झाय होती है, नौ सज्झाय में उसकी सज्झाय है या नहीं ? हैं ? योगसार .......
सर्व जीव हैं ज्ञानमय, जाने समता होय । वह सामायिक जिन कहे, प्रगट करे भवपार ॥
इसमें चार-चार बोल रखे हैं, भाई ! प्रत्येक में चार रखे हैं ।
सव्वे जीवा णाणमया जो सम-भाव मुणेइ । सो सामाइड जाणि फुडु जिणवर एम भणेइ ॥ ९९ ॥ सव्वे जीवा णाणमया, य सम-भाव ममते । तत सामाय जाणि स्फूटम्, जिणवर एम भणेइ ॥
सर्व जीव हैं ज्ञानमय, जाने समता होय । वह सामायिक जिन कहे, प्रगट करे भवपार ॥
सर्व जीव छे ज्ञानमय, जाणे समता भार; ते सामायिक जिन कहे, प्रगट करे भव पार ॥
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समभाव होता है, वहाँ भव का पार ही होता है - ऐसा उसका फल बताया। समभाव का फल ही भव का अभाव, ऐसा। एक-एक श्लोक के पण्डितजी ने चार-चार अर्थ किये थे। यह एक ‘लालन' ? वृद्ध (थे), पिच्यानवें वर्ष में स्वर्गस्थ हो गये । बहुत अभ्यास, बहुत अभ्यास, पन्द्रह वर्ष की उम्र से पिच्यानवें वर्ष तक अभ्यास । दृष्टि विपरीत थी, फिर यहाँ रहते थे, बारह महीने रहे थे । सब अभ्यास । सोलह वर्ष कहते थे। सोलह वर्ष से शास्त्र का अभ्यास, शास्त्र अभ्यास, वह पिच्यानवें (वर्ष तक) संवत् २००९ के साल में स्वर्गस्थ हो गये। यहाँ बारह-बारह महीने रहते थे, यहाँ बैठते थे, वृद्ध थे, फिर तत्त्व