________________
३३४
जो पिण्डस्थ पदस्थ अरु रूपस्थ रूपातीत । जानों ध्यान जिनोक्त ये, होवो शीघ्र पवित्र ॥
गाथा - ९८
अन्वयार्थ - - (बुह ) हे पण्डित ! (जिण- उत्तु जे पिंडस्थु पयत्थु रूवत्थु मुणेहि ) जिनेन्द्र द्वारा कहे गये पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ व रूपातीत ध्यान हैं, उनका मनन कर (जिम लहु परु होहि ) जिससे तू शीघ्र ही परम पवित्र हो जावे ।
✰✰✰
९८ आत्मध्यान के चार प्रकार । ज्ञानार्णव में आते हैं न ?
जो पिंडत्थु बुह रूवत्थु वि जिण उत्तु। रूवातीततु मुणेहि लहु जिम परू होहि पवित्तु ॥ ९८ ॥
हे पण्डित!‘बुह’ शब्द प्रयोग किया है । है पण्डित ! पण्डित तो उसे कहते हैं। आहा...हा...! जो इन चार प्रकार के ध्यानवाले आत्मा के आनन्द में एकाग्र होकर आत्मानुभव करे, उसे यहाँ पण्डित कहा जाता है । आहा...हा... ! आता है न पाहुड़ में, नहीं ? मोक्षमार्गप्रकाशक में भी आता है । हे पाण्डे... हे पाण्डे... हे पाण्डे ... ! तुस कूट रहा है। मोक्षमार्गप्रकाशक, है ? दोहापाहुड़ में । यह श्लोक दोहापाहुड़ का है। मोक्षमार्गप्रकाशक में टोडरमलजी ने पहले अधिकार में लिया है। पाण्डे... पाण्डे... पाण्डे...! तीन बार लिया अर्थात् कि मिथ्या श्रद्धा, मिथ्याज्ञान, और मिथ्या – राग-द्वेष, तुस कूटता है, बापा ! यह माल अन्दर भगवान आत्मा पूर्णानन्द का नाथ, उसकी तुझे प्रतीति नहीं, उसका विश्वास नहीं, उसका ज्ञान नहीं और उसमें रमणता नहीं और तू दूसरी बातें करता है, ऐसा होता है और वैसा होता है और करा भोजन, लाखों लोगों को (कहे), ऐसा होता है, अमुक होता है, व्यवहार करते-करते होता है, राग करते-करते होता है, पहले ऐसा का ऐसा आता होगा कोई ? आहा...हा... ! अब कुछ मार्ग आया । यह कहते हैं, बापू ! व्यवहार विकल्प को छोड़ने पर दृष्टि का अनुभव होता है। समझ में आया ? ऐसा कठिन लगे इस तरह । अन्दर मार्ग देखा नहीं और मार्ग में चलने का पुरुषार्थ चाहिए, वह भी तैयार नहीं । आहा... हा... ! कषाय मन्द करो, व्यवहार करो, और व्यवहार करते-करते व्यवहार के फलरूप में तुम्हें निश्चयमोक्षमार्ग प्रगट होगा ( - ऐसा अज्ञानी कहते हैं) ।