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________________ ३३५ योगसार प्रवचन (भाग-२) मुमुक्षु – बारहवीं गाथा में लिखा है। उत्तर - बारहवीं गाथा में लिखा नहीं। लिखा... ! उसका अर्थ ही इसे नहीं आता। सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे॥१२॥ अरे... इसका अर्थ दूसरा है। अमृतचन्द्राचार्यदेव की टीका तो देख! यह तो सम्यक् अनुभव – दृष्टि हुई है, आत्मा का ज्ञान हुआ है, स्वरूप की स्थिरता भी कितनी ही हुई है परन्तु अभी अवस्था में राग, व्यवहार बाकी है। शुद्धता आंशिक... आंशिक बढ़ती जाए, अशुद्धता घटे, उसका ज्ञान करना, वह जाना हुआ प्रयोजनवान् है, उसका नाम व्यवहार है। व्यवहार करना और उसे व्यवहार का उपदेश देना, यह बात ही वहाँ नहीं है। समझ में आया? क्या हो परन्तु अब? जिस दृष्टि से कहा गया है, उस दृष्टि से न देखें तो उसका अर्थ भासित नहीं होता। आचार्य की जो दृष्टि थी कि 'भूदत्थमस्सिदो खलु' भगवान आत्मा भूतार्थस्वरूप, एकाकार आनन्दकन्द का आश्रय करने से सम्यग्दर्शन होता है । यह तो निश्चय बात सिद्ध की। तब अब यहाँ कुछ व्यवहार बाकी है, या अकेला निश्चय हो गया? इसलिए बारहवीं गाथा में लिया, बाकी है। अभी अशुद्धता है, राग है; पर्याय में पूर्ण शुद्धता नहीं है, उस गुणस्थान के भेद का भलीभाँति उस-उस काल में ज्ञान करना, वह व्यवहार जाना हुआ प्रयोजनवान है। जाना हुआ प्रयोजन है; इसलिए बारहवीं में वह डाला है, ग्यारहवीं की सन्धिरूप में बारहवीं में (डाला है)। बस! भूतार्थ का आश्रय हो गया तो हो गया केवली? नहीं, नहीं; अभी बाकी है, उसे पुरुषार्थ करना बाकी है, इसलिए जितनी शुद्धता प्रगट हुई, अशुद्धता रही, उसका ज्ञान करना है। समझ में आया? और वह शुद्धता पूर्ण करने के लिए स्व का आश्रय लेना पड़ेगा। इस प्रकार साथ में व्यवहार का ज्ञान कराते हैं। आहा...हा... ! परन्तु क्या हो? भाई ! यह किसी को दे दें ऐसा है ? इसके घर की चीज है, यह ले तब हो – ऐसा है। कहते हैं कि हे पण्डित जिनेन्द्र द्वारा कहे गये जो.... है न? 'जिण उत्तु' वीतराग भगवान ने यह चार ध्यान कहे हैं। उनके द्वारा, पिण्डस्थ, पदस्थ.... पिण्डस्थ अर्थात् इस
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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