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योगसार प्रवचन ( भाग - २ )
और शाश्वत् मार्ग जो था, उस मार्ग को स्वयं स्वतः अनुभव किया है। ऐसी संक्षिप्त में बात की है | चारित्रसहित में रहनेवाले इसलिए आहा... हा... ! कहते हैं, जिसे आत्मा का धर्मध्यान कहते हैं, उस धर्म के ध्यान में यदि आत्मा को आनन्द न आया हो तो उस प्राणी को मूर्च्छावान और मोही कहते हैं। कहीं मूर्च्छित हो गया है, इसलिए यहाँ आनन्द नहीं आता है । आहा...हा... ! समझ में आया ? कहीं अर्पित हो गया लगता है। घर की स्त्री ऐसी पद्मनी जैसी हो परन्तु प्रेम न लगता हो, तब फिर उसे घर की स्त्री को शंका हो जाती है, कहीं इसका मन अन्यत्र रमता लगता है । अन्यत्र कहीं है, यहाँ मन नहीं लगता। पहचान ले, फिर उसे द्वेष हो जाये, हाँ ! उसे पता पड़े कि यह साथ में है। जगत् में ऐसा रिवाज है।
इसी प्रकार यहाँ कहते हैं, परमात्मा आनन्द की मूर्ति प्रभु है और उसका यदि यह ध्यान किया हो और आनन्द न आवे तो वह कहीं मूर्च्छित हो गया है। कहीं पुण्य और पाप के प्रेम में फँस गया है । आहा... हा... ! किसी शुभ - अशुभ वृत्ति या किसी विकल्प में फँस गया है। यदि फँसा न होता तो धर्मध्यान तो जिसका ध्यान करे उसमें तो आनन्द है उस ध्यान में आनन्द क्यों नहीं आयेगा ? समझ में आया ?
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यह तो तत्त्वानुशासन है न ? जब ध्यान करते हुए आत्मा का अनुभव प्रगट होता है, तब परम एकाग्रता मिलती है तथा तब ही वह वचनों से अगोचर आत्मीक आनन्द का स्वाद आता है। सम्यग्दर्शन - ज्ञान और चारित्र तीनों ही वास्तव ज्ञान की प्रगट दशा है। ज्ञान के साथ आनन्द भी है, इसलिए ज्ञान के साथ आनन्द भी तीनों में साथ है। समझ में आया? इसलिए कहते हैं, जिसने आत्मानुभव - स्वभाव की श्रद्धा - ज्ञान और अनुभव स्थिरता प्रगट की तब परम एकाग्रता मिलती है... तब अन्तर एकाग्रता है। तब ही वह वचनों से अगोचर आत्मीक आनन्द का स्वाद भोगता है । यह ९७ (गाथा पूर्ण) हुई।
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आत्मध्यान के चार प्रकार
जो पिंडत्थु बुह रूवत्थु वि जिण उत्तु।
रूवातीततु मुणेहि लहु जिम परू होहि पवित्तु ॥ ९८ ॥