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गाथा - ९७
(एक कहता है) पीला दिखा... एक व्यक्ति पूछता था, नहीं ? एक प्रतिमाधारी था, एक था न ? भाई था न ? चिदानन्दजी ! यहाँ दो तीन बार रहे थे न ? हाथवाले नहीं ? वे चिदानन्द, हाथ ऐसा था न ! उनके साथ एक प्रभुजी थे । उनका नाम प्रभु, फिर यहाँ आये । सात प्रतिमाधारी, नाम प्रभुजी । पानी लेकर आये हों और ... सिर पर लेकर आवें, सात प्रतिमाधारी.... फिर उनसे पूछे कि आत्मा कैसा ? तो कहे लाल । आत्मा लाल है। शाम को एक आर्यिका आयी थी, बहुत थकी हुई ( थी) । वहाँ किसी ने पूछा होगा, यहाँ तो आत्मा की बात है । आत्मा कैसा ? पहले हो लाल और फिर दिखे सफेद । आर्यिका थी। फिर थक गये। पट्टी-बट्टी रखे, पानी तो पीवे नहीं, छाछ समझे, मट्ठा, लू बहुत लगी थी, ऐसे कहीं से शाम को चलते हुए आये, ऐसी गर्मी लगे, पानी पीवे नहीं, छाछ ले नहीं । (लोग कहें) परीषह सहन किया। आर्तध्यान है बापू ! उसे पूछा तब कहे, आत्मा पहले लाल हो फिर सफेद । आहा...हा... ! अभी तो आत्मा का पता नहीं पड़ता और यह प्रतिमाएँ और व्रत और वहाँ चढ़ गये थे।
(यहाँ) कहते हैं, भाई ! जिसे ऐसा है कि हम ध्यान, धर्मध्यान करते हैं... ऐसा तो लोग कहते हैं या नहीं। हम धर्मध्यान करते हैं तो धर्मध्यान की व्याख्या क्या ? धर्म ऐसा जो आत्मा का त्रिकाली स्वभाव, उसका ध्यान । अतः उसके ध्यान में यदि एकाग्र हुआ हो तो ध्यान (है) । उस एकाग्रता में यदि अतीन्द्रिय आनन्द न आवे तो वह ध्यान ही नहीं है । समझ में आया ? लो ! वह मूर्च्छावान अथवा मोही है। आचार्य कहते हैं, हाँ ! तत्त्वानुशासन... तत्त्वानुशासन किसका है ? रामसेनजी का है ।
यहाँ कहते हैं.... इस बात में न्याय है, श्लोक लिखा है, देखो -
समाधिस्थने यद्यात्मा बोधात्मा नाऽनुभूयते ।
तदा न तस्य तद्ध्यानं मूर्छावान्मोह एव सः॥ १६९॥ परमृच्छति । वाचामगोचरं ॥ १७० ॥
दिगम्बर मुनियों ने, सन्तों ने तो बहुत संक्षिप्त में बहुत माल भर दिया है। मूल सत्ता को स्थिरता द्वारा, चारित्र के द्वारा अनुभव किया है । आहा... हा... ! समझ में आता है न ?
तदेवानुभवँश्चायमेकाग्र्य तथात्माधीनमानन्दमेति