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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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स्थान मिला। समझ में आया? वह स्थिरता का धाम मिला, यहाँ ठहरना, यहाँ रहना, जितना यहाँ स्थिर हुआ, उतना आनन्द प्रगट होगा। समझ में आया? आहा...हा...!
फिर थोड़ी लम्बी बात है। स्वानुभव की कला सम्यक्त्व होते ही जग जाती है। लो! समझ में आया? भाई! आत्मा (ने) अपने स्वभाव की रुचि की कब कहलाये? कि वह स्वभाव उसके ज्ञान में भासित हो । आत्मा का स्वभाव शुद्ध आनन्द, जिसकी ज्ञानदशा में भाव भासे, भाव भासे, तब उसका विश्वास आवे, तब उसे उसमें स्थिरता से कल्याण होगा. इस प्रकार चारित्र की दशा प्रगट होती है। आहा...हा...! ऐसी बातें हैं। व्यवहार की आड़ में लोगों को मार डाला है। व्यवहार के थोथे के थोथे विकल्प की जाल, उसमें मानो सब हो गया धर्म और सामायिक, प्रौषध और प्रतिक्रमण और.... है ! तुम्हारे 'नागनेश' में बहुत होता है, नहीं? यह सब भी करते होंगे न? तुमने भी किये होंगे? यह भी शामिल थे न? यह मुख के सामने बैठते, सामने दुकान, जल्दी सबेरे आवें। पता है? सबेरे जल्दी चार बजे आवें... ऐसा हो जाता है परन्तु यह मूलचन्दभाई क्या करने बैठे हैं वहाँ ? छोटा भाई! पता है न? छोटे भाई को तो पता होगा। मूलचन्द रतन', उपाश्रय के सामने दुकान.... ऊ.... करते-करते झपकी ले ले। अरे... भगवान !
आत्मा का स्वभाव... भाई! उसके ज्ञान में भाव भासित नहीं हुआ, उसका विश्वास उसे कैसे आवे? जो आत्मा का वस्तुस्वरूप है, उसका – ज्ञान का भान हुए बिना, उसके भाव का भासन, भासन कहो या ज्ञान कहो, भाई! टोडरमलजी ने भावभासन शब्द बहुत प्रयोग किया है। टोडरमलजी भावभासन शब्द बहुत बार प्रयोग किया है। उसका यह हेतु है। भावभासनरहित श्रद्धा, वह श्रद्धा नहीं है। समझ में आया? ऐसे का ऐसा मान लेना कि यह आत्मा है और यह परमात्मा सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ है तो तुझे भावभासित हुआ है ? सर्वज्ञ एक समय में तीन काल, तीन लोक जानते हैं। समझ में आया कुछ? ऐसी महिमावाला ज्ञान, तुझे अन्दर भासित हुआ है ? कि ऐसी अस्ति जगत में है। कब भासित हो? कि मैं भी स्वयं सर्वज्ञस्वभावी हूँ। उन्हें प्रगट हुई है, मैं सर्वज्ञस्वभावी हूँ – ऐसा सर्वज्ञ शब्द से ज्ञानस्वभाव । ज्ञान शब्द से फिर उसमें पूर्ण। अपूर्ण होता ही नहीं, वह ज्ञानस्वभाव अर्थात् सर्वज्ञस्वभाव। ऐसे स्वभाव का ज्ञान में