________________
गाथा - ९७
भासन हुए बिना, उस आत्मा की श्रद्धा भावभासन बिना सच्ची नहीं हो सकती और उसके बिना चारित्र नहीं हो सकता। समझ में आया ? लो !
३३०
सम्यग्दृष्टि को स्वानुभव करने
रीति मिल जाती है। इस ओर है। धर्म की दृष्टि हुई, तब उसे कला हाथ में लग गयी कि यह अनुभव ऐसे करना । एक बार मार्ग देखा हो न तो दूसरी बार उसे सरल पड़ता है। धवल में आता है न ? भाई ! ' दीठमग्गे' – ऐसा शब्द बहुत आता है। धवल की टीका में वीरसेनस्वामी कृत टीका में 'दीठमग्गे' (अर्थात्) देखे हुए मार्ग में ज्ञानी जाता है । अज्ञानी भी देखे हुए मार्ग में जाता है । विपरीत श्रद्धा और विपरीत मान्यता के मार्ग में वह चला जाता है। समझ में आया ? ' दीठमग्गे' जिसने भगवान आत्मा की केडी (पगडण्डी) ली है, केडी समझे न ? यह रास्ता, पैदल की पगडण्डी होती है न पगडण्डी । यह... पगडण्डी गयी। ऐसे धर्मी के ज्ञान में आत्मा स्वभाव का भान होने पर उसका मार्ग दिखा है कि इसमें स्थिरता से शान्ति मिलती है । इसलिए उसने देखे हुए मार्ग में वहाँ रमता है । आहा... हा... ! समझ में आया ? गाथा में इतना भरा है, इतना भरा है !! समझ में आया ?
कहते हैं, आत्मवीर्य की कमी से सर्व ही सम्यक्त्वी ऐसा नहीं कर सकते तब शक्ति के अनुसार गृहस्थी में यदि रहते हैं तो .... पूर्ण आनन्द और सन्तपना प्रगट न कर सके तो गृहस्थाश्रम रहकर भी समय निकालकर आत्मानुभव के लिए
सामायिक का अभ्यास करते हैं। देखो, सामायिक का अभ्यास आया है । सामायिक है न यह ? समाधि है न यह ? गृहस्थाश्रम में भी मुनि जितना समय उसे नहीं मिले तो आत्मा के अन्तर अनुभव की धारा के मार्ग में जाना ऐसा थोड़ा समय निकालकर सामायिक में वह समय निकालता है। समझ में आया ? सामायिक का अभ्यास करता है... समय निकालकर आत्मानुभव के लिए सामायिक का अभ्यास करता है। फिर बहुत बात की है ।
तत्त्वानुशासन में कहते हैं - समाधिभाव में तिष्ट कर जो ज्ञानस्वरूप आत्मा का अनुभव न हो तो उसके ध्यान नहीं है । 'तत्त्वानुशासन' में; तत्त्व - अनुशासन शिक्षा । भगवान आत्मा... कहते हैं कि उसका ध्यान करे और उसे आनन्द न आवे तो वह ध्यान