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गाथा-९७
अमुक प्रकार की बात (आती है), दृष्टान्त आते हैं, अमुक आता है, बड़े शहर में कुछ दिन थोड़ा रहना उसमें... आहा...हा...!
कहते हैं, भाई ! प्रभु! तेरी प्रभुता तो तेरे पास है न, भाई ! उस प्रभुता में तो आनन्द की प्रभुता तेरे पास है। उसे पुण्य-पाप के रागरहित सुखी दशा प्रगट करके, आत्मा में सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र प्रगट करना, इसका अर्थ कि सुखी दशा करना; दु:ख की दशा का अभाव करके सुखी भगवान आत्मा का आश्रय लेकर सम्यक्श्रद्धा-ज्ञान और शान्ति प्रगट करना, वह सुखरूप दशा है। वह सुखी हुआ, सुख में आया हुआ आत्मा पूर्ण सुख को साधता है। आहा...हा... ! यह कहा है न इसमें? जं विंदहिं साणंदु सो सिव-सुक्खं भणंति। समझ में आया?
आत्मिकसुख का स्वाद प्राप्त करने का उपाय अपने ही शुद्ध आत्मा में निर्विकल्प समाधि की प्राप्त करना है।तत्त्वज्ञानी को जरूर उचित है कि वह पहले गाढ़ विश्वास करे कि मैं ही शुद्धसमान शुद्ध हूँ। पहले गाढ़ (श्रद्धा) करे कि इन्द्र और नरेन्द्र कोई आवे और बदलावे (तो भी) तीन काल में नहीं बदले। मैं स्वयं शुद्ध आनन्दकन्द सिद्धसमान ही मेरा स्वरूप है। 'सिद्ध समान सदा पद मेरो' ऐसा दृढ़ विश्वास करके, मेरा द्रव्य कभी स्वभावरहित नहीं हुआ। मेरा भगवान, मेरा भगवान, मेरा भगवान महिमावन्त स्वभाव से खाली नहीं है। मेरा भगवान, यह वस्तु भगवान ! महिमावन्त स्वभाव से भगवान खाली नहीं होता। महिमावन्त स्वभाव! अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, अनन्त शान्ति, अनन्त स्वच्छता, अनन्त परमेश्वरता... स्वरूप के अनन्तपने की दशा को करे, कर्म करे, शान्ति साधन स्वयं करे। ऐसे एक-एक गुण की अनन्त महिमा का धारक भगवान महिमावन्त प्रभ. उसकेगण की महिमा के स्वभाव से कभी खाली नहीं होता। यह विश्वास आये बिना उसकी ओर का झुकाव करना नहीं हो सकता। स्थिरता, समझ में आता है ? चारित्र, चरना।
ऐसा अन्दर भगवान परमानन्दमूर्ति, जिसके महिमावन्त स्वभाव से कभी रहित हुआ ही नहीं। पर्याय में अल्पता, विकल्पता भले हो; स्वरूप है, वह तो गुणानन्द से रहित कभी नहीं होता – ऐसा जिसे अन्तर दृढ़ विश्वास आया, उसे स्वरूप में स्थिरता का वह