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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ३१३ नहीं जानता है (परभाउ णविचएइ) व परभावों का त्याग नहीं करता है (सो सयल सत्थई जाणइ) वह सर्व शास्त्रों को जानता है तो भी (सिवसुक्खुण हुलहेइ) मोक्ष के सुख को नहीं पावेगा। ९६। परभाव का त्याग कार्यकारी है। लो समझ में आया? ९५ में ऐसा कहा, भगवान ! यदि तुझे हित करना हो तो आत्मा जिस स्वरूप से है, उसे जान, उसे रुचि में ले और उसका अनुभव कर तो चारित्र हुआ, स्वरूपाचरण हुआ, तीनों हो गये। समझ में आया? और वही अनुभव मोक्ष का मार्ग है। तब यहाँ कहते हैं ऐसे अनुभव में परभाव का त्याग होता है। यह बात करते हैं, देखो! परभाव का त्याग कार्यकारी है। जो णवि जाणइ अप्पु परू णवि परभाउ चएइ। सो जाणउ सत्थहँ सयल ण हु सिवसुक्खु लहेइ॥९६॥ जो कोई आत्मा को और पर-पदार्थ को नहीं जानता... जो कोई इस भगवान आत्मा पूर्ण परमात्मस्वरूप अभेददृष्टि से नहीं जानता और परभाव को नहीं जानता कि यह पुण्य और पाप, राग और द्वेष मेरे आत्मा के स्वभाव से भिन्न चीज है। यह दया, दान, व्रत, भक्ति का भाव शुभ इस आत्मा से भिन्न चीज है। कभी सुना नहीं होगा। कामदार ! हो, यह सुना हो, बापू! मुमुक्षु – हमें क्या करना? उत्तर – करना यह । नहीं किया? पूरा आत्मा पड़ा है न? नहीं कैसे? शाश्वत् अनन्त गुण का धाम आत्मा है, परमात्मा यह पुकार करते हैं कि त्रिकाल ऐसा का ऐसा आत्मा है, भाई ! तेरी नजर के आड़ से तुझे तेरा निधान नहीं दिखता। समझ में आया? लोग नहीं कहते 'काँख में लड़का और ढूँढ़ने जाए गाँव में' – ऐसा कुछ कहते हैं या नहीं? क्या कहलाता है ? कमर... कमर । हाथ ऐसे और ऐसे रह गया, भूल गया, ए... लड़का कहाँ गया? हाथ ऐसा का ऐसा रह गया और अकड़ गया। लड़का ऐसा रह गया, लड़का कहाँ
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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