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गाथा-९५
तो निश्चय को न जाननेवाला व्यवहार को ही निश्चय तथा सत्य-मूल पदार्थ समझ लेगा। देखो, मूल पदार्थ समझ लेगा। निश्चय, सत्य और मूल । व्यवहार को निश्चय, व्यवहार को मूल पदार्थ और व्यवहार स्वयं सत्य मान लेगा।
एक बार कहा था न 'कुआवडा...'"कुआवडा' नहीं, वह मच्छर ? राजकोट से पाँच गाँव 'कुआवडा' वहाँ सब आये थे, वहाँ विद्यालय में उतरे थे, वहाँ एक मच्छर का चित्र बना हुआ था। मच्छर... मच्छर होता है न? लम्बे पैर, इतने-इतने चार (पैर) । बालक को बताते थे कि देखो! भाई! मच्छर ऐसा होता है। छोटे को स्पष्ट बतलाने को उसके पैर लम्बे करके बतलाये। उसमें उस गाँव में आया हाथी, उसने कभी मच्छर ऐसा नजर से निश्चित नहीं किया था, अतः कहने लगा मास्टर साहब देखो! आप उस दिन मच्छर बतलाते थे, वह आया। वहाँ ऐसा चित्र देखा, हाँ! वहाँ स्कूल में था, छोटा शरीर और पैर लम्बे इसलिए वह बतलाता है कि यह पैर बारीक-बारीक लम्बे हैं, यहाँ ताँकना हो वह सब लम्बा करे तो बता सके। लम्बा करके बताया इसलिए उसने हाथी देखा नहीं था और मच्छर का पता नहीं कि कितना होता है ? मच्छर को ऐसा करके बतलाया था (इसलिए कहने लगा) मास्टर साहब आप मच्छर बतलाते थे, वह मच्छर आया। इस प्रकार व्यवहार को निश्चय मान लिया। बनी हुई बात है, हाँ! बनी हुई बात है।
मुमुक्षु- ........ उत्तर - ख्याल में हो वह आये न!
परभाव का त्याग कार्यकारी है जो णवि जाणइ अप्पु परू णवि परभाउ चएइ। सो जाणउ सत्थहँ सयल ण हु सिवसुक्खु लहेइ॥९६॥
निज-पर रूप के अज्ञ जन, जो न तजे परभाव।
ज्ञाता भी सब शास्त्र का, होय न शिवपुर राव॥ अन्वयार्थ - (जो अप्पु परू णवि जाणइ) जो कोई आत्मा को व परपदार्थ को