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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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ट्ठिदा भावे॥१२॥' जो निचली भूमिका में है, उसे व्यवहार का उपदेश देना... परन्तु ऐसा वहाँ नहीं कहा है। ववहारदेसिदा' का अर्थ अमृतचन्द्राचार्यदेव ने ऐसा किया है। यह 'ववहारदेसिदा' शब्द है, उसका वाच्य – अभेद स्वरूप आत्मा की दृष्टि और ज्ञान हुआ, तब उसे जितना राग और संयोग में अथवा शुद्धता के अंश बढ़े या राग के (अंश) घटे, ऐसे भेद को जानना, वह 'यदात्व' काल में प्रयोजनवान है। यह ‘ववहारदेसिदा' क्या? इसका अर्थ अमृतचन्द्राचार्य ने यह किया है - इस वाचक का वाच्य है । तब दूसरे कहते हैं, व्यवहार का उपदेश देना... वहाँ उपदेश की व्याख्या ही नहीं है। समझ में आया? आहा...हा...! भगवान आत्मा पूर्ण प्रभु अपनी पूर्ण निश्चय दृष्टि से देखे तो मैल, भेद और संयोगरहित देखता है, यह निश्चयनय का नियम है। व्यवहारनय का यह नियम है, भेद
और आश्रय वह निमित्त को देखता है। है, है इतना अवश्य; यदि वह न हो तब तो सम्पूर्ण तीर्थ और गुणस्थान के भेद नहीं रहते और निश्चय न रहे तो स्व आश्रय के बिना तत्त्व का लाभ कैसे होगा? आहा...हा...! समझ में आया? यह बात की।
यहाँ कहते हैं नियम को न जाने वह जिनवाणी का यथार्थ ज्ञाता नहीं हो सकता। निश्चयनय के नियम को न जाने, भगवान कथित आत्मा निश्चय का विषय, उस वस्तु को न जाने वह ज्ञाता-दृष्टा नहीं हो सकता। कहो, समझ में आया? बालक को विलाव दिखाकर सिंह बतलाया जाता है। यदि उसे सिंह का ज्ञान न कराया जाए तब तो बालक विलाव को ही सिंह समझता रहेगा। विलाव को ही सिंह मानेगा - ऐसा व्यवहार बतलाते अवश्य हैं, जो यह आत्मा है, यह आत्मा है – एकेन्द्रिय आत्मा, दो इन्द्रिय (आत्मा) परन्तु यह एकेन्द्रिय-दोइन्द्रियपना वस्तु में नहीं है, ऐसा व्यवहार में बताते हैं परन्तु इसे भी मान ले तो निश्चय को नहीं समझता तो वह उपदेश के योग्य नहीं है। ऐसा यहाँ कहते हैं।
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति देखो! पहले में आया था, ऐसा कहीं कहा नहीं है कि निश्चय का स्वरूप जाने और पहचाने, उसे देशना देने योग्य नहीं है परन्तु अकेले व्यवहार को जाने और निश्चय को न जाने, वह देशना सुनने के योग्य नहीं है – ऐसा कहा है। आहा...हा...! समझ में आया? निश्चय का ज्ञान न कराया जाये