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गाथा-९५
उत्तर – भगवान ने कहे हैं। मुमुक्षु – उपादेय चाहिए न।
उत्तर - नय है तो नय का विषय है, नय विषयी है, उसका विषय है - ऐसा जानना चाहिए परन्तु वह विषय आदरणीय है – ऐसा नहीं। आदरणीय हो तो नय कैसे रहे ? दो नय क्यों रहे? दो ज्ञान कैसे रहे? ज्ञान के विषय दो अलग कैसे पड़े? दो के फल बिना दो भिन्न कैसे रहे? इसे न्याय से तो विचार करना पड़ेगा न? दो (नय) पड़े उसका अर्थ क्या हुआ? एक नय अभेद को बताता है और एक नय उससे विरुद्ध ऐसे भेद को बताता है, दो नय विरुद्ध हो गये। आहा...हा...!
मुमुक्षु - अनेकान्त....
उत्तर - अनेकान्त हुआ न! अभेद भी है, भेद भी है। अभेद में भेद नहीं, भेद में अभेद नहीं – इसका नाम अनेकान्त है, वरना तो दो एक हो जाएँगे, व्यवहार-निश्चय दोनों एक हो जायेंगे। व्यवहारनय और निश्चयनय का स्वरूप एक हो जाए तो व्यभिचार हो जाए, एक भी नय न रहे। एक नय की वास्तविकता जो है, वह न रहे तो दूसरे नय की वास्तविकता नहीं रहेगी। वरना नय का स्वरूप ही नहीं रहेगा। आहा...हा...! पंचाध्यायी में कहा है न? यदि व्यवहारनय का विषय निश्चय में जायेगा तो नय का स्वरूपी नहीं रह सकेगा। अतिक्रान्त हो जायेगा, व्यवहार में निश्चय का कार्य किया तो निश्चय नहीं रहा, दोनों नय का नाश हो जायेगा। अरे... वस्तु भी इस प्रकार है; इस कारण भगवान की वाणी में ऐसा आया है।
भाई! तू वस्तु है, पूर्ण शुद्ध अखण्ड आनन्द यह निश्चय का सत्य का विषय है और उसके साथ जितना राग, संयोग है, वह व्यवहारनय का विषय है। यह दो ज्ञान हैं और एक नय का जो विषय है, उससे दूसरे नय का विषय अलग है। अलग न हो तो दो नय पड़े कैसे? एक यह आदरणीय है तो वह आदरणीय नहीं; जानने योग्य है।
इस कारण भगवान अमृतचन्द्राचार्यदेव ने कहा तदोत्वे जाना हुआ प्रयोजनवान है - ऐसा कहा है। पाठ में यह है, इसलिए सब तर्क देते हैं, देखो! 'अपरमे ट्ठिदा भावे' 'सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे