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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ३०९ व्यवहारनय का उपदेश किया है।अबुधबोधनार्थे...।अबुधस्य बोधनार्थ मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम्। अशुद्ध आदि द्वारा उसे समझाया है कि भाई! यह अशुद्धता उसकी पर्याय में है, वस्तु में नहीं। उस द्वारा उसे समझाया है। अज्ञानी, जिसे वस्तु का स्वरूप शुद्ध अखण्ड आनन्दस्वरूप आनन्दकन्द जिसकी नजर में अशुद्धता की आड़ में आयी नहीं, अशुद्धता की आड़ में आया नहीं, उसे समझाते हैं कि देख भाई! अशुद्धता है अवश्य परन्तु वह स्वरूप में नहीं है। उस अशुद्ध से शुद्ध (स्वरूप) भिन्न है – ऐसा अज्ञानियों को व्यवहारनय से समझाया गया है। परन्तु जो केवल व्यवहारनय के विस्तार को जाने.... व्यवहारनय के विस्तार को जाने – उसके भेदों को, उसके सम्बन्ध को, उसके राग को, उसके पुण्य-पाप को, उसके प्रकृति के परिणाम को, उसके सब विस्तार को जाने परन्तु निश्चयनय के नियम को न जाने.... परन्तु भगवान आत्मा उस राग और भेद व निमित्त के सम्बन्धरहित है। निमित्त अर्थात् संयोगी चीज, राग अर्थात् संयोगी भाव और मन के सम्बन्ध से गुण -गुणी के भेद का विकल्प उत्पन्न होना, वह भी व्यवहार है, उस सब व्यवहार से भगवान आत्मा भिन्न है, यह निश्चयनय का नियम है। निश्चयनय का यह नियम है। उसका यह नियम है कि वह पर से भिन्न बतावे और शुद्ध स्वरूप को स्वयं पहचाने, समझ में आया? व्यवहार का यह नियम है कि वह संयोग को बतावे, राग को बतावे, भेद - गुण-गुणी का भेद वह व्यवहारनय बतलाता है, इतना... आदरणीय निश्चयनय का नियम यह है कि इससे तू भिन्न। मुमुक्षु – दो में से मानना क्या? उत्तर – कहा न, यह मानना, जानना, मानना। और वह (व्यवहार) है - इतना जानना कि अभी इतना बाकी है, जानना अवश्य, आदरना यह, जानना उसे। इस प्रकार दोनों नयों को ग्रहण किया कहा जाता है। मुमुक्षु - दोनों को आदरना नहीं? उत्तर – आदरे क्या? धूल ! मुमुक्षु - दो नय भगवान ने कहे है न?
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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