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गाथा-९५
अपना करने लगे तो अनन्त पुरुषार्थ से भी वह नहीं हो सकता। वैसे ही आत्मा अन्दर में जो पुण्य-पाप का विकार है, उसे स्थायी-शाश्वत् आत्मा के साथ जोड़ना चाहे तो वह हो ही नहीं सकता। आहा...हा... ! समझ में आया? परन्तु आत्मा इस ज्ञान और आनन्द का भरपूर भण्डार-भरपूर प्रभु आत्मा है - ऐसे स्वभाव के अन्तर में एकाग्र होकर यह आत्मा उसे तो प्राप्त कर सके – ऐसा उसका स्वरूप है। समझ में आया?
सैंतालीस शक्तियों में ऐसा एक गुण भगवान ने लिया है कि आत्मा में प्रकाश (शक्ति है)। आत्मा स्वयं को प्रत्यक्ष हो सके - ऐसा उसमें गुण है। परोक्ष रहे – ऐसा कोई गुण उसमें नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया? कामदार! यह सब समझना पड़ेगा, हाँ! यह सब अभी तक उलटे-सीधे गोले मारे हैं वे, सही बात है या नहीं? मारे हैं तूने । सही बात है या नहीं? नानचन्द्रभाई ! यह तो धीरे-धीरे सुने तो हो। थोड़ा समय देना पड़ेगा। कहाँ गया दोशी ! जयन्तीलाल ! समझना यह, आहा...हा...!
परमेश्वर, जिन्हें एक समय की ज्ञानदशा में अपना पूर्ण स्वभाव भासित हुआ, उसमें तीन काल-तीन लोक भी अपनी पर्याय में भासित हुए - ऐसे भगवान की वाणी में, इच्छा बिना वाणी निकली, उस वाणी में आया, वह वाणी कहो या उसे आगम कहो। उस वाणी की रचना की तो फिर उसे आगम कहा जाता है। उस वाणी में, आगम में ऐसा आया, शास्त्र में ऐसा आया... यहाँ शास्त्र है न? सर्व शास्त्रों का ज्ञाता... भगवान की ऐसी वाणी निकली उस वाणी को सुनकर गणधरों ने अपनी योग्यता के भाव से सूत्ररूप से रचना की, निमित्तरूप से विकल्प में । उस वस्तु को आगम कहते हैं। उस आगम में ऐसा कहा गया है, समस्त आगम में यह कहा गया है कि भाई! तू तेरा राग और पुण्य-पाप तेरे त्रिकाली स्वभाव में एक करना चाहे तो नहीं हो सकते। भाई यह शरीर. वाणी. मन जड-मिटी है। इन्हें तू आत्मा के साथ एक समय भी यदि तन्मय करना चाहे, एक समय, तो नहीं होंगे। विकार एक समय तन्मय है, वह त्रिकाली स्वभाव के साथ तन्मय नहीं होता। समझ में आया? तन्मय अर्थात् क्या होगा? तन्मय... तन्मय... - उस रूप।
भगवान आत्मा अनन्त आनन्द और ज्ञान का सागर प्रभु, वह शरीर, कर्म आदि के रजकण को एक समय-सेकेण्ड का असंख्यातवाँ भाग, अपनी वर्तमान दशा में करना चाहे