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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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है, त्रिकाली, हाँ! त्रिकाली वस्तु भगवान आत्मा शाश्वत् है, तो उसका धर्म आनन्द, ज्ञानादि त्रिकाली शाश्वत् है। यह तो आनन्द को लेकर ही आत्मा पड़ा है। सभी शास्त्र पढ़कर सब लाख बातें करके जिसने अन्तर के अनुभव में आत्मा को जोड़ा, अनुभव वह आनन्द है, निर्विकल्प आनन्द है, राग और पुण्य-पाप की वासनारहित शुद्धपरिणति द्वारा यह आत्मा आनन्दस्वरूप है – ऐसा जिसने आनन्द के अनुभव द्वारा अनुभव किया, उसने बारह अंग का सब जाना, क्योंकि शास्त्र में कहने का हेतु तो इतना था। कहो, समझ में आया?
शास्त्रों का ज्ञान तभी सफल कहलाता है, जब अपने आत्मा की यथार्थ पहचान हो।... शास्त्र का ज्ञान तब सफल कहा जाता है कि आत्मा को जाने, आत्मा को यथार्थ पहचान ले। यथार्थ आत्मा को पहचाना, जाना, कब कहलाता है ? उसकी रुचि प्राप्त हो और उसके स्वभाव का स्वाद आने लगे। जानना, रुचि, और आनन्द, भाई ! तीन ले लिये। भगवान आत्मा शुद्ध आनन्द और ज्ञान की मूर्ति प्रभु आत्मा है। केवलज्ञानी परमात्मा ने अरहन्त तीर्थंकरदेव ने आत्मा को आनन्द और ज्ञानस्वरूपी देखा है। प्रत्येक का आत्मा, हाँ! भगवान केवलज्ञानी परमेश्वर है, तीर्थंकरदेव ने इस आत्मा को अनन्त आनन्द और ज्ञानवाला देखा है। उसे रागवाला, पुण्यवाला, कर्मवाला आत्मा को भगवान ने नहीं देखा है। समझ में आया? ऐसा जिसने देखा है, ऐसा जो देखने के लिए यत्नशील है, उसे आत्मा के पूर्ण स्वभावसन्मुख की दृष्टि होकर, उसका ज्ञान होकर और उसके आनन्द के स्वाद को लेने-अनुभव में पड़े तब उसने आत्मा को जाना और भगवान ने जाना वैसा इसने माना। बहुत सूक्ष्म परन्तु, भाई ! कहो जगजीवनभाई! कैसा कठिन? मेहमानों के लिए पूछते थे। मेहमानों के लिए पूछते थे, यह बहुत कठिन। अभी तक प्रौषध, सामायिक करते थे, मान लिया (धर्म)।
आत्मा में उसका अभ्यास करे और वह न बने – ऐसी वह चीज नहीं है। आत्मा में रजकण के और राग के भाव को कायम करना चाहे तो वह नहीं हो सकता। आत्मा अपने स्वभाव के अतिरिक्त जगत् के रजकण, परमाणु – पुद्गल छोटा या स्कन्ध; स्कन्ध अर्थात् बहुत रजकणों का पिण्ड-जत्था, उसे आत्मा इस रजकण से लेकर पूर्ण स्कन्ध को