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गाथा-९५
है। आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द शाश्वत् है, जैसे वस्तु शाश्वत् है, (वैसे) उसका आनन्द भी शाश्वत् है। ऐसे शाश्वत् आनन्द में एकाग्र होकर आनन्द के अनुभव से वेदन से आत्मा को जाने, उसने सब जाना। कहो, समझ में आया?
अविनाशी सुख में लीन शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है.... हितरूप कार्य तो यह है, प्रयोजनभूत आत्मा का कार्य, मोक्ष के परमानन्द सुख का हेतुरूप आत्मा परम आनन्द का अन्तर में अनुभव करना। समझ में आया? आत्मा का सच्चिदानन्दस्वरूप सिद्ध समान, सत्-शाश्वत ज्ञान और आनन्द का धाम आत्मा है – ऐसा आनन्द जो त्रिकाली है, उसमें लीन होकर वर्तमान आनन्द के वेदन द्वारा आत्मा को जानता है। समझ में आया? वह सर्व शास्त्रों का ज्ञाता है।
मुमुक्षु - वर्तमान आनन्द से निश्चित होता है।
उत्तर – वर्तमान आनन्द के अनुभव से आत्मा को जानता है कि यह आत्मा है, ऐसा। राग और पुण्य-पाप, वह आस्रवतत्त्व है। यह शरीर-वाणी मन तो जड़ है-पर है - मिट्टी है। अब इस आत्मा को शाश्वत् अन्दर में सुख है, उसे अन्तर अवलम्बन कर आनन्द का अनुभवसहित करता हुआ अनुभव द्वारा आत्मा को जानता है, उसने जाना कहा जाता है – ऐसा कहते हैं । यह तो एकदम योगसार है न!
योगसार अर्थात् भगवान आत्मा, उसका योग अर्थात् अन्तर जुड़ान। अनादि से पुण्य और पाप के भाव शुभ-अशुभराग का जुड़ान है। जुड़ान तो है, वह जुड़ान मिथ्यादृष्टि में अधर्मरूप जुड़ान है। भगवान आत्मा अनन्त ज्ञान और आनन्दस्वरूप है – ऐसा पहले निर्णय करके, पश्चात् उसके सन्मुख होकर आनन्द की शक्ति की पूर्णता सन्मुख होने पर उसे अतीन्द्रिय आनन्द के वेदन का अंश आने पर उसके द्वारा आत्मा अतीन्द्रिय आनन्दमय है – ऐसा जिसने जाना, उसने समस्त शास्त्रों को जाना। कहो, समझ में आया?
यहाँ तो मक्खन की बात है। योगसार है न! मक्खन पोला होता है, इसलिए एकदम चला जाता है आहा...हा...! प्रभु! तेरे पास आनन्द है न! तेरा आनन्द कहाँ ढूँढ़ने जाना पड़े - ऐसा है। यह आनन्द तो तेरा धर्म है। धर्मी-धर्म का धारक – ऐसा धर्मी आत्मा आनन्दादि धर्म का धारक है, वह तो तेरा स्वभाव ही है। आनन्द तो तेरा धर्म