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आत्मज्ञानी ही सब शास्त्रों का ज्ञाता है जो अप्पा सुद्ध वि मुणइ असुइ-सरीर-विभिन्न। सो जाणइ सत्थहँ सयल सासय-सुक्खहँ लीणु॥९५॥
जो जाने शुद्धात्म को, अशुचि देह से भिन्न।
ज्ञाता सो सब शास्त्र का, शाश्वत सुख में लीन॥ अन्वयार्थ - (जो असुइ सरीर विभिन्नु) जो कोई इस अपवित्र शरीर से भिन्न (सासय सुक्खहँ लीणु) व अविनाशी सुख में लीन ( सुद्ध वि अप्पा मुणइ) शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है ( सो सयल सत्थहँ जाणइ) वही सर्व शास्त्रों को जानता है।
वीर संवत २४९२, श्रावण शुक्ल ३,
गाथा ९५ से ९६
गुरुवार, दिनाङ्क २१-०७-१९६६ प्रवचन नं.४०
योगसार, ९५ गाथा आत्मज्ञानी ही सब शास्त्रों का ज्ञाता है। शीर्षक है। आत्मा को जाने, उसने सर्व शास्त्रों को जाना क्योंकि सर्व शास्त्रों को जानने का फल इस आत्मा का ज्ञान है। आत्मा का ज्ञान नहीं किया और अकेले शास्त्र पढ़े, उसे कहीं उसका फल नहीं, इसलिए यहाँ वजन है, देखो!
जो अप्पा सुद्ध वि मुणइ असुइ-सरीर-विभिन्न।
सो जाणइ सत्थहँ सयल सासय-सुक्खहँ लीणु॥९५॥
जो कोई इस अपवित्र शरीर से भिन्न.... यह शरीर तो अपवित्र, मिट्टी का पिण्ड है। इससे भिन्न भगवान अनन्त आनन्द पवित्र का धाम आत्मा है और अविनाशी सुख में लीन.... होकर, अर्थात् ? आत्मा में अविनाशी अतीन्द्रिय आनन्द अनादि-अनन्त पड़ा