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गाथा-९४
शुभ और अशुभ, शुभ और अशुभ ऐसा का ऐसा चला ही आता है, ऐसा कहते थे... कुछ होगा परन्तु आधार ख्याल में नहीं आया। निगोद में, हाँ! यह नित्य-निगोदवाले। ऐसे शुभ -अशुभभाव, शुभ-अशुभभाव क्षण-क्षण हुआ ही करते हैं। शुभ-अशुभ, शुभ-अशुभ, शुभ-अशुभ क्रम है। ऐसा कहा था, भाई! नहीं? फिर हमने माँगा था, आधार कहीं है ? हमने ढूँढा भी था परन्तु बहुत मिला नहीं, कहीं-कहीं ढूँढा अवश्य था। निगोद के जीव हैं न? उन्हें (पण्डितजी की) बहुत अभ्यास अभ्यास है। इसलिए कुछ हमने पूछा था, उसका आधार क्या? लाओ, मैं भेजूंगा (ऐसा कहा था) परन्तु भूल गये।
मुमुक्षु
उत्तर - ध्रुव प्रकृति भी परिणमन का निमित्त है या नहीं? ध्रुव प्रकृति भी निमित्त कौन? ऐसा कहते हैं न? हमने कहा कि शास्त्र में अशुभ परिणाम के समय भी पुण्य में थोड़ा रस पड़ता है। तब कहे, वह तो ध्रुव प्रकृति... परन्तु ध्रुव प्रकृति में निमित्त कौन? अपने आप मुफ्त में पड गयी? यह सिद्ध हआ कि अशुभ के समय प्रकृति ने भले थोडा रस (पड़े) और पाप में बहुत रस पड़ता है। समझे न? इसलिए वह शुभ करने जैसा है, यह प्रश्न वहाँ कहाँ है ? यह तो क्या होता है ? सबने बहुत चिल्लाहट मचायी थी। अर...र...! अशुभभाव के समय भी पूण्य में रस? परन्त भगवान कहते हैं. सन न अब। अकेले शुद्धभाव में बिलकुल बन्ध नहीं परन्तु शुभ-अशुभ में तो अशुभ के समय पाप में अधिक, पुण्य में थोड़ा, शुभ के समय पुण्य में अधिक और पाप में थोड़ा – ऐसी दो वस्तु होती ही हैं, वस्तु का स्वरूप ऐसा है।
यहाँ कहते हैं, मैं परमात्मा हूँ, मुझे इन्द्र आदि के पद की भी मुझे भावना नहीं है। सम्यग्दर्शन, इन्द्र के पद और से डोले इन्द्रियाणियाँ, मेरे आनन्द के आगे सब तेरे पद खोटे हैं। ऐसी उसकी अन्तर की दृढ़ता आत्मा पर होती है। फिर तीन शल्यरहित की विशेष बात की है।
(श्रोता - प्रमाण वचन गुरुदेव!)