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योगसार प्रवचन (भाग - २)
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चले गये तुम्हें सब ढूंढ़ते थे, मैं तो कौने में बैठा था। बारात सब बाहर निकल गयी, मुझे पता नहीं। तुम्हें सब ढूँढ़ते थे परन्तु तुम कहाँ बैठे थे ? मैं भण्डार में बैठा था। वहीं का वहीं विचार में चढ़ गया था। सबेरे ऐसा करना है, सबेरे वैसा करना है, सबेरे ऐसा करना है, ध्यान आता है या नहीं ? इसी प्रकार जब उलटा आता है और दूसरा भूले तो यह सुलटा आवे और दूसरा भूले ऐसी उसमें ताकत है। समझ में आया ? उलटे में तो ताकत शिथिल पड़ जाती है और सुलटे में ताकत तो उग्र होती है; इसलिए सुलटा करने की ताकत अधिक है । आहा...हा... ! समझ में आया ? इसलिए सम्यग्दृष्टि जघन्य ध्याता है।
जब तक इसका प्रेम न लगे, प्रेम बिना उसमें असक्ति या स्थिरत नहीं हो सकती। प्रेम के बिना उसमें एकाकार ऐसी लीनता नहीं होती है। ध्याता को यह श्रद्धान होना ही चाहिए कि मैं ही परमात्मारूप हूँ । इस परमात्मा का पेट ही मैं हूँ। मैं परमात्मा हूँ, मुझमें से परमात्मा पर्याय प्रस्फुटित होनेवाली है। किसी पर्याय में से नहीं, राग में से नहीं, निमित्त में से नहीं। ऐसा परमात्मा ( मैं हूँ) ।
मुझे जगत के इन्द्र, चक्रवर्ती आदि पदों के प्रति कोई रागभाव नहीं । धर्मी को इन्द्र के सुख और पदवी की लालसा नहीं होती, तीन लोक का राज भी जहाँ सड़े हुए तिनके जैसा लगे, आत्मा के आनन्द के स्वाद के समक्ष सब सड़ा हुआ तिनका (लगे), पूरी दुनिया दु:खी लगे, इसलिए उस पद को ज्ञानी नहीं चाहते हैं। जिसमें मिठास लगे तो इच्छे परन्तु आत्मा के आनन्द की मिठास के समक्ष समकिती को किसी पद में मिठास दिखाई नहीं देती। पुण्यभाव में मिठास दिखाई नहीं देती तो उसके फल में मिठास कैसे देखेगा ? आहा... हा...!
अरे... यह भगवान आत्मा, इसका सत् स्वरूप और सत् के अनन्त गुण, इसका इसने कभी माहात्म्य नहीं किया और यह व्यवहार-व्यवहार करके मर गया । वह तो निगोद में अनन्त बार वहाँ गया । शास्त्र में तो ऐसा भी आता है, फूलचन्दजी कहते हैं ऐसा क निगोद में भी क्षण में साता बँधती है और क्षण में असाता बँधती है। इसलिए शुभ-अशुभ (चलता है) ऐसा एक बार कहते थे । आधार माँगा परन्तु .... ऐसा कहते हैं । पण्डितजी ! निगोद में क्षण में साता बाँधता है। दूसरे समय में असाता, तीसरे समय में साता, इसलिए