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गाथा - ९४
मिथ्याचारित्र कहो, अचारित्र कहो, या अविरत कहो - ऐसे भी शब्द टोडरमलजी ने प्रयोग किये हैं, वह तो अपेक्षा से है, भाई !
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भगवान आत्मा अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य ध्याता है । स्वरूप की दृष्टि हुई है, उतना तो ध्यान करनेवाले की योग्यता प्रगट हुई है। सम्यग्दृष्टि ध्याता नहीं और (उसे) ध्यान भी नहीं - ऐसा नहीं है। ध्यान और ध्याता की शुरुआत चौथे से शुरु हो गयी है। समझ में आया ?' दुविहं पि मोक्खहेडं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा ।' द्रव्यसंग्रह (गाथा ४७) में कहा है, ध्यान में एकाग्रता (होती है ) । भगवान आत्मा के सन्मुख निर्विकल्प दृष्टि, वह ध्यान है और उसमें सम्यक्त्व उत्पन्न होता है - ऐसा सम्यक्त्वी जघन्य ध्याता है ।
ध्याता को सम्यग्ज्ञान होना ही चाहिए। भगवान आत्मा की एकाग्रतारूप ध्यान करनेवाले को सम्यग्ज्ञान न हो तो ध्यान नहीं कर सकता। सम्यग्ज्ञान, आत्मा का भान होना चाहिए। नीचे बीच में है क्योंकि जब तक अपने आत्मा के शुद्धस्वभाव का श्रद्धान न हो, वहाँ तक उसका प्रेम नहीं होता। भगवान आत्मा का प्रेम और पुण्य-पाप का प्रेम छूट न जाए, तब तक आत्मा का प्रेम नहीं होता और आत्मा के प्रेम बिना अन्दर लगनी नहीं लगती। लगनी लगने का नाम ध्यान है। इस संसार में दो-दो घण्टे पाप का ध्यान नहीं करते ? भूल जाए, जिस विचार में चढ़ा हो, उसमें यदि कुछ दो लाख - पाँच लाख, दो महीने में पैदा होनेवाले हों तो अन्दर से घोड़े चढ़ता है। (कोई पूछे) कहाँ थे ? मैं तो विचार में चढ़ गया था। घर में मेहमान आये थे परन्तु तुम आँख बन्द करके बैठे थे; इसलिए हम कुछ पूछ नहीं सके। मैं तो दो घण्टे विचार में चढ़ गया था । हैं ? ध्यान करना तो आता है ( परन्तु) उलटा । धीरुभाई ! आता है या नहीं ? ऐसे स्थिर हो जाये, स्थिर हो जाए। खोटे विकल्प में चढ़ जाए, इस लड़के का ऐसा हो जाए, अमुक ऐसा हो जाए, ऐसी श्रेणी हो जाती है। इसमें लड़के का विवाह हो, करोड़ की पूँजी हो, पाँच लाख खर्च करना हो, सगा सम्बन्धी अच्छा हो, कोई आगे-पीछे मरण न हुआ हो, उसकी होंश में विचार करने बैठा हो कि इसका ऐसा करूँगा और वैसा करूँगा। रात्रि के दस से बारह दो घण्टे निकल जाते हैं, पता नहीं (चलता) । अरे... ! कब - सब ( हुआ ) ? यह सब हो गया । वरगोडा हो गया। सब