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योगसार प्रवचन ( भाग - २ )
व्यापक है। सम्पूर्ण शरीर में व्यापक सर्वत्र है या नहीं ? अंगूठे से इस सिर तक; तथापि भिन्न जिस आसन में बैठा हो उस प्रमाण मानना – ऐसा कहते हैं । फिर लम्बी बात व्यवहार की बहुत डाली है। यह निर्मल जल समान, शुद्ध स्फटिक समान परम शुद्ध है । द्रव्यार्थिकनय से आत्मा को सदा निरावरण देखना । वस्तुदृष्टि से देखो तो निरावरण, त्रिकाल निरावरण है । वस्तु को आवरण क्या ? समझ में आया ?
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सामान्य और विशेष गुणों का धारक है, वह ज्ञाता - दृष्टा है, वीतराग है, परमानन्दमय है, परमवीर्यवान है, शुद्ध सम्यक्त्व गुण का धारक है, परम निर्मल तेज में चमक रहा... है । भगवान चैतन्य के तेज में विराजमान है। उसके चैतन्य के नूर, प्रकाश के पुँज से चमक रहा है। राग और विकार से चमके, वह वस्तु नहीं है । आहा... हा... ! समझ में आया? इस प्रकार अपने शरीर में व्यापक आत्मा को बारम्बार देखकर चित्त को रोकना यह ध्यान का प्रकार है । साधु विशेष कर सकते हैं परन्तु हम देशव्रती मध्यम ध्याता.... मुनि है वह आत्मा का उत्कृष्ट ध्यान कर सकते हैं। देशव्रती पंचम गुणस्थानवाला, दो-कषाय का अभाव हुआ है, इसलिए मध्यम ध्यान कर सकता है। मुनि है, उन्हें तीन कषाय अस्थिरता के कारण मिट गये हैं, इसलिए स्थिरता का कारण उन्हें अधिक है।
अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य ध्याता है । यहाँ अपने को वजन लेना है। चौथे गुणस्थान में भी... एक व्यक्ति ने यह डाला, टोडरमलजी ने तो कहा है कि चौथे गुणस्थान में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि में राग-द्वेष हो वह मिथ्याचारित्र है; इसलिए उसे मिथ्याचारित्र है, उसे चौथे में स्वरूपाचरण नहीं है... परन्तु समकिती को इष्ट-अनिष्ट बुद्धि होती ही नहीं, सुन तो सही ! इष्ट-अनिष्ट की स्थिरता हो परन्तु यह पदार्थ इष्ट-अनिष्ट होता ही नहीं - ऐसा बड़ा लेख (आया) है। चौथे गुणस्थान में उसने पाँच इन्द्रिय के विषय छोड़े नहीं हैं, इष्ट-अनिष्ट बुद्धि छूटी नहीं है, इसलिए उसे मिथ्याचारित्र कहा जाता है। इसलिए मिथ्याचारित्रवाले को स्वरूपाचरण नहीं है - ऐसा करके लिखा है । आहा... हा... ! भाई ! मिथ्याचारित्र नहीं, उसे अव्रत है। मिथ्याचारित्र तो जिसकी दृष्टि मिथ्यात्व पर है, उसके चारित्र को मिथ्याचारित्र कहा जाता है परन्तु ऐसे तीन शब्द प्रयोग अवश्य किये हैं न,