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योगसार प्रवचन ( भाग - २ )
तो नहीं हो सकता और राग-द्वेष के परिणाम एक समय में तन्मय है परन्तु वे त्रिकाल स्वभाव के साथ तन्मय / एकरूप करना चाहे तो नहीं हो सकता । तब भगवान आत्मा अनादि आनन्द और ज्ञान से एक रूप तन्मय है, उसकी वर्तमान दृष्टि करके उस आनन्द के साथ तन्मय होना, वह तुझसे हो सकेगा। समझ में आया ? क्योंकि उसमें वह गुण है । एक प्रकाश नाम का बारहवाँ (बारहवीं शक्ति) गुण है। समझ में आया ? सर्वदर्शित्व, सर्वज्ञत्व, स्वच्छत्व, प्रकाश .... सैंतालीसवाँ में बारहवाँ (गुण है) ।
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भगवान आत्मा में.... यहाँ तो यह प्रश्न उठा की सर्व शास्त्रों में यह कहा है । आत्मा के आनन्द से (आत्मा को ) जाना उसने सब (शास्त्र) जान लिये । अतः यहाँ तो यह हुआ कि यह आत्मा अनादिकाल से विकार और संयोगी चीज को अपनी करना चाहता है परन्तु उसमें वह गुण नहीं है। समझ में आया ? उसमें गुण अर्थात् गुण करने का अर्थात् लाभ करने का ऐसा कोई गुण नहीं है । विकार को अपना करे या शरीरादि को करे ऐसा उसमें त्रिकाली गुण, गुण का गुण नहीं। ऐसा गुण, उसका वह गुण नहीं परन्तु आत्मा में एक गुण अनादि-अनन्त ऐसा है कि जो स्वयं को प्रत्यक्ष कर सके ऐसा उसमें गुण है। आहा... हा...! समझ में आया ? आहा... हा... !
भाई ! उस सुख को वेदन में प्रत्यक्ष कर सके - ऐसा तेरा गुण है, हाँ ! और उस गुण
यह है । वह गुण जो त्रिकाली प्रकाश गुण है, उसका गुण ऐसा है कि स्व- - संवेदन (अर्थात्) राग के बिना आनन्द का वेदन करके जान - ऐसा उस गुण का गुण है। गुण
गुण अर्थात् उस गुण का कार्य । आहा... हा... ! इसमें बहुत सूक्ष्म, भाई ! उस गुण का फिर उसका गुण अर्थात् उस गुण का कार्य, समझ में आया ? परन्तु बात इसे यह क्या चीज है और कैसे है, यह तो कभी जानने का मन्थन किया नहीं। बाहर ही बाहर में स्वयं खो गया । है ? परमेश्वर खो गया ।
सूरदास थे न ? उसमें बात आती है, अन्धी आँखें, उन्हें कृष्णरूप से स्वीकारते न? अन्धे थे तो कृष्ण ने हाथ छुड़ा लिया... भाग गये... भगवान ! परन्तु तू हाथ से छूटा, हाँ! मेरे हृदय में से जा तो सही, आँखें बन्द थीं। सूरदास थे न, सूरदास ! आँखें फोड़ डाली थी, ऐसा कि आँखों से स्त्री क्यों दिखती है ? अरे ... ! परन्तु उसमें आँख का क्या