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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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देखकर व्यवहार साधन का आरोप किया है। समझ में आया? यह वस्तुस्थिति तीन काल में बदले ऐसी नहीं है। समझ में आया? अत: पहले इसे निश्चय का आश्रय करना चाहिए।
जो कोई निर्जरा का लक्ष्य रखकर समसुख को भोगता हुआ.... निर्वाण – मुक्ति पूर्ण आनन्द की प्राप्ति बिना मैं अतृप्त हूँ, पूर्ण आनन्द की प्राप्ति बिना मैं अतृप्त हूँ - ऐसा धर्मी जानता है। समझ में आया? यहाँ पेट पूरा न भरे, तब तक ऐसा कहते हैं न कि मेरा पेट भरा नहीं। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि को पूर्ण आनन्द की प्राप्ति नहीं है, तब तक अतृप्त है; इसलिए जिसे पूर्ण आनन्द की छटपटाहट है – ऐसे निर्वाण का लक्ष्य रखकर समसुख को भोगता हुआ आत्मानुभव का अभ्यास करे वह शीघ्र निर्वाण का प्राप्ति करेगा। यह गाथा का अर्थ हुआ।
फिर समयसार कलश की बात थोड़ी डाली है। ज्ञानचेतना के अथवा आत्मानुभूति के आनन्दसहित केलि कराना, कर्म करने के प्रपंच से और कर्मफल से निरन्तर विरक्तभाव की सम्यक् प्रकार से भावना भाना। सम्यग्दृष्टि, पुण्य-पाप के परिणाम यह कर्मचेतना है और उसके हर्ष-शोक से उसे भोगना वह कर्मफलचेतना है। उनसे रहित भगवान आत्मा ज्ञानानन्दस्वरूप शुद्ध है, उसकी चेतना को नचाये, ज्ञानचेतना को नचाये; कर्म और कर्मफलचेतना को हेय करके छोडे। समझ में आया?
इसमें पूरा माल पड़ा है, उसके सम्मुख नजर करने का इसे समय नहीं मिलता और जिसमें कुछ नहीं – पुण्य-पाप के विकल्प और निमित्त में कुछ तेरा तत्त्व नहीं, तेरा सत्त्व या तत्त्व उसमें कुछ नहीं, उसमें लगा है और उसी में इसे सर्वस्व लगता है। बस! यह, सब! यह, व्यवहार करो, व्यवहार करो, परन्तु व्यवहार करो अर्थात् अधर्म करो – इसका अर्थ (हुआ)। अरे... भगवान ! क्या कहते हैं ? समझ में आया?
अनादिरूढ़ व्यवहार मूढ़ है। (समयसार) ४१३ गाथा में भगवान अमृतचन्द्राचार्यदेव ने कहा है। अनादि के राग को तू व्यवहार कहने जा तो वह तो व्यवहार मूढ़ है, निश्चय में अनारूढ़ है। अनादिरूढ़, व्यवहारमूढ़, निश्चय में अनारूढ़ – ऐसे तीन शब्द प्रयोग किये हैं। (समयसार) ४१३ गाथा। ४१३ गाथा है न? ४१३ बहुत बार कही गयी है। एक की एक बात बहुत बार (कही गयी है)। वहाँ आगे इसमें से भी विवाद उठा है न!