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________________ २८८ गाथा-९३ वहाँ सम्यग्दर्शन और ज्ञान का अनुभव हुआ, उसे आस्रव बहुत ही घट गया; संवर-निर्जरा बढ़ गयी। समझ में आया? अनन्तानन्त गुणस्वरूप भगवान की जहाँ अन्तरदृष्टि, अनुभव और सम्यक् हुआ, तब किसी गुण की, कितने ही गुण की, किंचित विपरीत अवस्था थोड़ी रही, वह तो अल्प रही है। अल्प बन्धन और अल्प आस्रव है और अनन्तानन्त गुण का जहाँ आदर होकर अनन्त-अनन्त गुण की पर्याय की व्यक्तता निर्मल सम्यग्दर्शन होने पर हुई, (वहाँ) निर्जरा अधिक हो गयी है, आस्रव घट गया है। निश्चय के कथन में तो सम्यग्दृष्टि को बन्ध नहीं है – ऐसा भी कहा जाता है क्योंकि स्वभाव में नहीं है, उसकी दृष्टि में नहीं है । बन्ध का भाव बन्ध के कारण में डाल दिया है, ज्ञेय में (डाल दिया), परन्तु कदाचित् उसकी पर्याय में मन्दता है क्योंकि पूर्ण अनन्त गुणों की पूर्ण निर्मल व्यक्तदशा नहीं हुई, इसलिए उसे अल्प रागादिक है परन्तु वह आस्रव बहुत थोड़ा है और मोक्षमार्ग तो अन्दर बढ़ गया, अधिक (हो गया है)। आत्मा ‘णाणसहावाधियं मुणदि आदं' राग से, निमित्त से, भेद से भिन्न करके अधिक आत्मा की जहाँ दृष्टि हुई, उसे मोक्षमार्ग हाथ में आ गया। आहा...हा...! परन्तु यह वस्तु का जोर है, भाई! दष्टि तो कर उसकी न! ऐसा आत्मा है। भाई! आत्मा अर्थात् क्या? साक्षात् परमात्मस्वरूप, द्रव्यस्वरूप अर्थात् साक्षात् शक्तिस्वभाव गुण परमात्मरूप। समझ में आया? कहते हैं कि उसमें जहाँ एकाग्र हो तो उसे उपादान का साधन बढ़ गया है और किंचित राग बाकी रहा है तो उसे निमित्तरूप कहा जाता है परन्तु शुद्ध उपादान अन्तर अनन्त गणों का पिण्ड, उसका जहाँ साधन एकाग्र होकर हुआ, वह शुद्ध उपादान साधन निश्चय है। देव-शास्त्र-गुरु आदि का राग किंचित् बाकी रहा, उसे व्यवहार निमित्त साधन का आरोप करके साधन कहा है; वस्तुतः तो वह बाधक है। समझ में आया? परन्तु उस गुणस्थान के योग्य, ऐसे ही सच्चे देव, ऐसे ही सच्चे गुरु, ऐसे ही सच्चे शास्त्र का उसे उस प्रकार का शुभराग होता है; दूसरा कुदेव, कुगुरु का नहीं होता और उस छठे गुणस्थानादि में राग की मन्दता इतनी होती है कि पंच महाव्रत के परिणाम में वस्त्र-पात्र ग्रहण की वृत्ति नहीं होती – ऐसे कषाय की मन्दता की योग्यता व्यवहार से निमित्त की अनुकूलता
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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